शनिवार, 21 सितंबर 2019

दान का संस्कार

हमारे शास्त्र दान देना सौभाग्यकारक मानते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह इस समाज से बहुत कुछ लेता है। सामाजिक और धर्मिक कार्यों के लिए सदा ही धन की आवश्यकता होती है। वह धन आता है दान से। हमारे मनीषी हमें समझाते हैं कि अपने घर के खर्चों को करते हुए प्रति मास अपनी सुविधानुसार मनुष्य को दान के लिए कुछ राशि निकालनी चाहिए। अपने परिश्रम और ईमानदारी से कमाए गए धन को किसी सुपात्र को देना चाहिए।
          इस विषय में एके बोधकथा पढ़ी थी। उसे आप सुधीजनों के समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ।
         एक सन्त ने एक सद् गृहस्थ के द्वार पर दस्तक दी और आवाज लगाई, "भिक्षां देहि।"
        एक छोटी बच्ची बाहर आई और वह बोली, ‘‘बाबा, हम लोग बहुत ही गरीब हैं, हमारे पास भिक्षा में देने के लिए कुछ भी नहीं है।"
          सन्त बोले, ‘‘बेटी, मना मत करना, अपने आँगन की एक मुट्ठी धूल ही मुझे भिक्षा में दे दो।"
        लड़की ने एक मुट्ठी धूल उठाई और उन सन्त के भिक्षा पात्र में डाल दी।
           शिष्य ने उनसे पूछा, ‘‘गुरु जी, धूल भी कोई भिक्षा होती है? आपने उसे धूल देने के लिए क्यों कहा?
        सन्त बोले, ‘‘बेटा, अगर आज वह मुझे न कह देती, तो फिर कभी किसी को भिक्षा नहीं दे पाती। आज उसने धूल दी है तो क्या हुआ, देने का संस्कार तो उसके मन में पड़ गया। आज धूल देने से उसमें देने की भावना तो जागी है, फिर कल जब वह बेटी सामर्थ्यवान हो जाएगी तब अन्न और फल का भी दान करेगी।
         इस छोटी-सी कथा का निहितार्थ बहुत महान है। इस बात को सदा स्मरण रखना चाहिए कि दान हमेशा अपने परिवार के छोटे बच्चों के हाथों से दिलवाना चाहिए, जिससे बिना कहे ही उनके मन में दूसरों को कुछ देने की भावना बचपन से ही घर कर जाए। इसी प्रकार बच्चों को माता-पिता सहज ही में संस्कारवान बना सकते हैं। दूसरी ओर बच्चे खेल-खेल में ही ये सब महत्त्वपूर्ण बातें सीख जाते हैं।
          दान अपनी जेब के अनुसार अथवा अपनी चादर को देखते हुए ही देना चाहिए। किसी की होड़ करते हुए स्वयं को कर्ज में डूबा देना समझदारी नहीं सकता कहलाती। दान मनुष्य किसी भी वस्तु का दे सकता है। धन का दान तो प्रचलित है। अन्न और फल का भी दान दिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त वस्त्र का दान दिया जा है। वस्त्र नए हों तो बहुत अच्छा, पर यदि पुराने वस्त्र भी किसी को  दिए जाएँ तो वे फ़टे-पुराने न होकर अच्छी कंडीशन के होने चाहिए, ताकि लेने वाला उन्हें कुछ दिन पहने तो सही।
           एक बात में यहाँ और जोड़ना चाहती हूँ कि दान अपनी मेहनत और ईमानदारी की कमाई का ही फलदायी होता है। चोरी, डकैती, रिश्वतखोरी, स्मगलिंग, भ्रष्टाचार, दूसरों का गला काटकर कमाए गए धन से दिया गया दान कभी फलदायी नहीं होता। यानी दाता को उस दान का पुण्य कदापि नहीं मिलता। ईश्वर समाज विरोधी इन लोगों से कभी प्रसन्न नहीं हो सकता।
           विद्या का दान सब दानों में उत्तम माना जाता है। जितनी अपनी सामर्थ्य हो, उसके अनुसार गरीब बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाया जा सकता है। जिस गरीब प्रतिभाशाली बच्चे को ऐसी सुविधा मिल जाएगी, उसका जीवन सफल हो जाएगा। साथ ही उसे शिक्षित करवाने वाले का जीवन भी धन्य हो जाता है।
         मन में यह दुख कभी नहीं करना चाहिए कि हम इस योग्य नहीं है कि दान दे सकें। कोई बात नहीं किसी को अच्छा मार्ग दिखाना भी उपकार का कार्य होता है, उसे तो कर सकते हैं। सबके साथ प्रेम और सहृदयता का व्यहार भी इसी दान की श्रेणी में आता है। शारिरिक श्रम का भी दान किया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य के पास जो भी है, उसे समाज के हित में लगाना दान कहलाता है। यानी तन, मन और धन से जो भी श्रद्धापूर्वक दिया जाए, वह दान की श्रेणी में ही आता है। हर व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने जीवन में इस दानकर्म से वञ्चित न रहने पाए। दान देने से मनुष्य में विनम्रता का भाव आना चाहिए। इससे इहलोक और परलोक दोनों सुधरते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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