शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

मोक्ष का अधिकारी

 मोक्ष का अधिकारी

विषय वासनाओं में जकड़ा मनुष्य सदा दुख ही प्राप्त करता है। विषय भोग सीमित समय के लिए उसे सुख दे सकते हैं, हमेशा के लिए नहीं। उनसे मनुष्य का मन कभी नहीं भरता। इसलिए मनुष्य बार-बार इन विषयों का आस्वादन करना चाहता है। जितना इन भोगों में फँसाता जाता है, वह उतना ही उस ईश्वर से दूर होता जाता है। जितना वह प्रभु से दूरी बना लेता है, उतना ही अशान्त रहता है। 
        'श्रीमद्भगवद्गीता' में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
       आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
              समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
      तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
             स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥
अर्थात् जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में  समा जाते हैं, वैसे ही जिस स्थित प्रज्ञ पुरुष में सब काम्य-विषय विकार उत्पन्न किए बिना समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, न कि भोगों को चाहने वाला।
         संयमी व्यक्ति समुद्र की तरह गम्भीर होता है। वह विषय वासनाओं के विचारों के प्रवाह को सहन करने में समर्थ होता है। वह अपनी मर्यादा का त्याग कदापि नहीं करता। अतः संयमी व्यक्ति को ही शान्ति मिलती है। इसके विपरीत वासनाओं के पीछे भागने वाले सदा आशान्त रहते हैं।  ऐसे ही लोग शान्ति की खोज में हमेशा  इधर-उधर भटकते रहते हैं। उन्हें शान्ति कभी नहीं मिल पाती।
         जल से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में सब ओर से आए हुए जल उसमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं। उसी प्रकार विषयों का संग होने पर भी जिस पुरुष में समस्त इच्छाएँ कोई भी विकार उत्पन्न न करती हुई सब ओर से प्रवेश कर जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो जिसकी समस्त कामनाएँ आत्मा में लीन हो जाती हैं, उसको अपने वश में नहीं कर सकतीं।
          भगवान् श्रीकृष्ण ने नदियों से समुद्र में निरन्तर मिलने वाले पानी की तुलना विषयों के प्रति लगाव या विषय-वासना रूपी विचार के प्रवाह से की है। समुद्र में नदियों का जल प्रतिपल स्वाभाविक रूप से मिलता रहता है। इसी प्रकार ये सभी विषय वासनाएँ बिना रुके लगातार हमारे मन को मथती रहती हैं। धीर-गम्भीर सागर में मिलने वाली नदियाँ उसे उद्वेलित नहीं करतीं, बल्कि उसमें समाकर एकाकार हो जाती हैं।
          यदि ये वासनाएँ मनुष्य को किसी प्रकार जकड़ती नहीं हैं, तब मनुष्य सागर की तरह गम्भीर तथा संयमी बन जाता है।जिस व्यक्ति ने तीनों एषणाओं का परित्याग कर दिया हो, ऐसे स्थितप्रज्ञ विद्वान संन्यासी को ही परम शान्ति अथवा मोक्ष मिलता है। भोगों की कामना करने वाले मनुष्य को नहीं। इसी अभिप्राय को समुद्र के दृष्टान्त के द्वारा समझने का प्रयास भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में  किया गया है।      
           विषय-वासनाओं को नियन्त्रित करने पुरुष को शान्ति या मोक्ष मिलता है। भोगों की कामना करने वाले दूसरे लोगों को मोक्ष नहीं मिल पाता। इसका अभिप्राय यह हुआ कि मनुष्य जिन्हें पाने के लिए कामना करता है, उन भोगों का नाम काम है। उन्हें पाने की इच्छा करना जिसका स्वभाव है, वह मनुष्य कामकामी कहलाता है। वह मनुष्य उस परम शान्ति को कभी नहीं प्राप्त कर सकता।
          भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार विषय वासनाओं के पीछे भागने वाला व्यक्ति कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकता। इसलिए वह भटक जाता है और अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। जिस संयमी व्यक्ति ने इन विषय वासनाओं को अपना दास बना लिया या वश में कर लिया, वह इनके पीछे नहीं भागता। वही सही मायने में परम शान्ति या मोक्ष को पाने का अधिकारी बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

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