गुरुवार, 27 अगस्त 2020

विश्व बन्धुत्व की भावना

  विश्व बन्धुत्व की भावना

भारतीय संस्कृति विश्व बन्धुत्व में विश्वास रखती है। इसका अर्थ यही है कि सारा विश्व अपना घर है। यही भारतीय संस्कृति की विशेषता है। संसार के सभी लोग हमारे अपने बन्धुजनों के समान हैं। किसी से कोई वैर नहीं और किसी से कोई द्वेष नहीं। भारत में जो भी प्रार्थना ऋषियों द्वारा की जाती रही है, वह 'सर्वजनहिताय' और 'सर्वजनसुखाय' यानी सभी लोगों के हित के लिए और सभी लोगों के सुख के लिए की जाती रही है।
             निम्न मन्त्र में विश्व बन्धुत्व की भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है-
      सर्वे भवन्तु सुखिनः 
               सर्वे सन्तु निरामया:।
        सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा 
               कश्चित् दुखभागभवेत्।।
अर्थात् सभी लोग सुखी रहें, सभी जन रोग रहित हों, सभी मनुष्य अच्छा देखें और किसी को दुख न हो।
          इस मन्त्र में ऋषि केवल अपने, अपने परिवार, गली-मोहल्ले, गाँव, नगर या देश के लिए नहीं, अपितु समस्त संसार के जीवों के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि सारा संसार सुखपूर्वक रहे और रोग से रहित होकर अपना जीवन व्यतीत करे। सब लोग अच्छाई का अनुसरण करें, ताकि उन्हें किसी प्रकार का कोई दुख और परेशानी कभी पीड़ित न कर सके। चारों ओर हमें अच्छाई का ही साम्राज्य दिखाई दे।
           उपनिषद के एक बहुत प्रसिद्ध मन्त्र है- 
   संगच्छध्वं संवध्वं संवो मनांसि जनताम्।
  देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते॥
अर्थात्‌ हम इकट्ठे चलें, एक जैस बोलें और हम सबके मन एक जैसे हो जाएँ।     
          इसका अर्थ है कि प्राचीनकाल से ही यह भावना हम भारतीयों के हृदयों में निवास कर रही है। सभी लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। मनीषियों और तत्त्वचिन्तकों ने बिना किसी भेदभाव के मानवमात्र या प्राणिमात्र के कल्याण की कामना की है। यहाँ वैयक्तिक-सामाजिक, राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय, राजनीतिक-नैतिक, धार्मिक-प्रगतिशील मूल्य विद्यमान हैं। जिन्हें हम एक शब्द में मानवीय मूल्य कह सकते हैं।
            'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' सूत्र के द्वारा भारतीय मनीषियों ने उदार मानवतावाद का सूत्रपात किया है। उसमें सार्वभौमिक कल्याण की भावना निहित है। यह अवधारणा देश और काल की परिधि से बहुत परे की बात है। और यह पारस्परिक सद्भाव, विश्वास एवं एकात्मवाद पर टिकी हुई है। 'स्व' और 'पर' के मध्य जो एक खाई है, उसे पाटना सभी का कर्त्तव्य बनता है। इसी प्रकार व्यष्टि को समष्टि में आत्मसात करना आवश्यक हो जाता है।
          'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की इस विशाल भावना का विश्व में किसी से कोई विरोध नहीं है। यह अवधारणा शाश्वत, व्यापक एवं उदार नैतिक मानवीय मूल्यों पर आधारित है। इसमें किसी प्रकार की संकीर्णता के लिए कोई स्थान नहीं है। इस भावना को अपनाने की अनिवार्य शर्त मात्र सहिष्णुता है। यदि लोग असहिष्णु हो जाएँगे तो सर्वत्र मारकाट मच जाएगी। कोई किसी का चेहरा देखना पसन्द नहीं करेगा।
          भारत में कभी एक महाराजा हुए थे, उनका नाम था रन्तीदेव। वे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि न उन्हें राज्य की इच्छा है, न उन्हें स्वर्ग कामना है और न उन्हें मोक्ष की अभिलाषा है। प्रभो आप बस आप इस संसार के सभी प्राणियों के दुःख दूर कर दीजीए। हमारे इस भारत देश में रन्तीदेव जैसे अनेक महापुरुष जन्म लेते रहे हैं । उन्होंने अपने सुख की कोई परवाह नहीं की, अपितु उनकी अनुरक्ती प्रजा के सुखी होने में ही रही है। 
           ऐसे महान व्यक्ति आज भी देखने के लिए मिल जाते हैं, जो विश्व के हित की कामना करते हैं। ऐसे लोग धर्म-जाति, रंग-रूप, अमीर-गरीब, छोटा-बड़े आदि के आधार पर लोगों को नहीं बाँटते। उनके लिए सभी लोग एकसमान हैं। वे ईश्वर की बनाई हुई सम्पूर्ण सृष्टि से यथावत प्यार करते हैं। किसी के प्रति, किसी भी कारण से नफरत का स्थान उनके हृदय में कभी नहीं आता।
            इन मानवीय मूल्यों को बिना किसी पूर्वाग्रह के सच्चे मन से अपनाए बिना ये मानवता, मनुष्य, धर्म और संस्कृति सब अधूरे हो जाते हैं तथा राष्ट्र और विश्व पंगु के समान हो जाते हैं। यदि हम विश्व को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, तो हमें विश्वबन्धुत्व की इस सुन्दर भावना को आत्मसात करना होगा। विश्वगुरु कहालाया जाने वाला हमारा भारत देश ही अग्रणी रहकर इस महान परम उदघोष को सत्य कर सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

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