मंगलवार, 18 अगस्त 2020

मेरा कुछ नहीं

 मेरा कुछ नही

मनुष्य को मेरा और तेरा आदि कुछ नहीं करना चाहिए। मनुष्य का इस संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह शरीर जिसे हर समय सजाता रहता है, वह भी तो उसका अपना नहीं है। जिस धन को कमाने के लिए अपना ऐशो आराम छोड़कर वह सारा समय पागल हुआ रहता है, वह भी उसके साथ अगले जन्म में नहीं जाता बल्कि इसी संसार मे रह जाता है। उसके माता-पिता, पति या पत्नी, बच्चे, बन्धु-बान्धव तक उसका साथ छोड़ देते हैं।
           मनुष्य इस असर संसार में मात्र एक भोक्ता है। जो कुछ भी यहाँ दृश्य या अदृश्य दिखाई देता है, वह सब परमपिता परमात्मा की कृपा का ही परिणाम है। वही इस सृष्टि की रचना करने वाला है, पालन करने वाला है और संहार करने वाला है। मनुष्य तो केवल मैं मैं करके व्यर्थ अहंकार करता रहता है। वह मालिक मनुष्य के झूठे दम्भ को देखकर बस मुस्कुराता रहता है और उसके सुधार जाने की प्रतीक्षा करता रहता है।
         'महाभारत' के शान्तिपर्व में महर्षि वेद व्यास कहते हैं-
द्वयक्षरस् तु भवेत् मृत्युः 
           त्रयक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।
मम इति च भवेत् मॄत्युः 
           न मम इति च शाश्वतम्॥
अर्थात् मृत्यु दो अक्षरों का शब्द है जिससे अन्त होता है और ब्रह्म तीन अक्षरों का शब्द है जो शाश्वत है। इसी प्रकार 'मम' यानी मेरा मृत्यु की ओर ले जाता है और 'न मम' यानी मेरा नहीं शाश्वतता की ओर ले जाता है।
         इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि इस नश्वर संसार में मनुष्य का अपना कुछ भी नहीं है अर्थात् मैं यानी मनुष्य किसी वस्तु का स्वामी या सृजनकर्ता नहीं है अपितु अपने आधिपत्य में आने वाली उन सभी वस्तुओं का मात्र उपभोक्ता या देखभाल करने वाला रक्षक है। यही विचार मनुष्य को अपने मन में रखकर जीवन जीना चाहिए। इस प्रकार आचरण करने से मनुष्य स्वतः ही ब्रह्म तक पहुँचकर परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।
           मनुष्य का जो भी है, उसका स्वामी भी ईश्वर है। वह ईश्वर मनुष्य को दी हुई कोई भी वस्तु वापिस ले लेता है, तो उसे बहुत कष्ट होता है। मनुष्य तो हर वस्तु पर अपने एकाधिकार समझता है। वह अपनी वस्तु किसी को नही देना चाहता, यदि कोई लेना चाहें, तो वह चीख-पुकार करता है। वह रोता है और चिल्लाता है। वह सहन नहीं कर सकता कि उसकी वस्तु कोई ले ले, फिर लेने वाला वह मालिक स्वयं ही क्यों न हो।
         जब मनुष्य में अपरिग्रह का भाव आ जाता है, तब वह अपने कर्त्तापन के भाव को छोड़कर, सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देता है, तो उस समय उसे कष्ट नहीं होता। जब वह स्वयं को कर्त्ता मानता ही नहीं तब उसमें छिपा हुआ अहं का भाव तिरोहित होने लगता है। वह समझ जाता है कि उसके पास जो भी वस्तु है, वह उस प्रभु की ही देन है। वह जब चाहे अपनी दी हुई वस्तु को लौटा सकता है। 
           इस भौतिक जगत में मनुष्यों का भी यही व्यवहार होता है। वे एक-दूसरे को वस्तुएँ देते रहते हैं और लेते रहते हैं। देते समय उन्हें दुख नहीं होता कि वस्तु उनके पास से जा रही है और जब वह वस्तु उन्हें वापिस मिल जाती है, वे उछलते नहीं। उन्हें पता होता है कि दी हुई वस्तु एक न एक दिन वापिस आनी ही है। इस प्रकार दोनों ही स्थितियों में उनका व्यवहार एक समान रहता है।
           जो लोग मेरे-तेरे के इस मोह-माया के जाल में फँसे रहते हैं, वे परेशान होते रहते हैं। उनके कर्मों के अनुसार ईश्वर यदि उनसे उनकी कोई प्रिय वस्तु ले ले, तो वे चीखते-चिल्लाते हैं। ये मनुष्य उस ईश्वर को लानत-मलानत देते हैं। उसे दोष देते हुए नहीं थकते। अपने गिरेबान में झाँककर वे नहीं देखते। ऐसे लोगों का प्रतिशत दुनिया में अधिक है। वे समझना ही नहीं चाहते कि उनके पूर्वजन्मों के कृत कर्मों का फल उन्हें मिल रहा है।
            मनीषी इसीलिए समझाते हैं कि मनुष्य को मैं और मेरा करने से को बचना चाहिए। उसे यह सोचना चाहिए कि जो भी अच्छा या बुरा उसके साथ हो रहा है, वह उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों का ही फल है। जब मनुष्य इस सत्य को आत्मसात कर लेता है, तो उस समय वह सुख-दुख आदि द्वन्द्वों के फेर से मुक्त होकर स्थितप्रज्ञ बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

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