गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

जन्म सफल

  जन्म सफल

परिवर्तन शील है यह संसार असार। इस संसार को मरणधर्मा भी कहते हैं। इसका अर्थ है कि जिस जीव का जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित होती है। कोई भी यहाँ सदा के लिए नहीं आता। अपने कर्मानुसार प्राप्त जीवन को भोगकर उसे इस संसार से विदा लेनी पड़ती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि जीव का यहाँ पुनर्जन्म नहीं होता। अपना रूप बदल- बदलकर जीव बार-बार इस संसार के नियमानुसार जन्म लेता है।
           एक मनुष्य का जन्म होता है, फिर दूसरे का जन्म होता है। यानी यह श्रृंखला टूटती नहीं है, अपितु बढ़ती ही जाती है। अब तक इस संसार में पता नहीं कितने अरबों-खरबों लोग जन्म ले चुके हैं। कोई उनके विषय में कोई कुछ भी जान नहीं पता। कीड़े-मकोड़ों की तरह जीवन जीकर वे यहाँ से विदा हो जाते हैं। उनका इस संसार में होना या न होना कोई मायने नहीं रखता। अर्थात् उनके आने-जाने से किसी को कोई अन्तर नहीं पड़ता।
           जन्म और मृत्यु के चल रहे इस अनवरत क्रम में कुछ लोग अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं, जो इतिहास के पन्नों में सदा के लिए अमर हो जाते हैं। उन्हें युगों तक स्मरण किया जाता है। उनके कार्य देश, धर्म और समाज की भलाई के लिए होते हैं। अपनी परवाह किए बिना के सुधार या परोपकार के कार्यों में जुटे रहते हैं। कुछ लोग अपनी चरित्रगत खूबियों के कारण भी अमर हो जाते हैं। वास्तव में इनका जीना ही जीना कहलाता है।
           महाराज भर्तृहरि ने इस भाव को निम्न श्लोक में प्रकट किया है-
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥
अर्थात् इस परिवर्तनशील संसार में किसी एक की मृत्यु के पश्चात क्या कोई दूसरा जन्म नहीं लेता है अर्थात् जन्म लेना और मरना निरन्तर चलता रहता है। परन्तु जो व्यक्ति अपनी जाति तथा वंश को असीम ऊँचइयों तक ले जाता है, वास्तव में वही जन्म लेता है अर्थात् उसका ही जन्म लेना सार्थक है ।
         इस श्लोक के माध्यम से भर्तृहरि जी कहते हैं कि जीव निरन्तर एक के बाद एक जन्म लेते रहते हैं। एक जीव का जन्म होता है, फिर दूसरे जीव का। यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। जीवन उसी व्यक्ति का सफल माना जाता है, जो अपनी जाति और वंश को ऊँचाइयों की ओर लेकर जाता है। यह कार्य वही मनुष्य कर सकता है, जिसके हृदय में कुछ कर गुजरने की आग होती है। हर व्यक्ति इस प्रकार के कार्यों को करने की सामर्थ्य नहीं रखता।
           गीता में भगवान श्रीकृष्ण युद्धक्षेत्र में अपने बन्धु-बान्धवों को देखकर मोहग्रस्त अर्जुन को समझते हैं -
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥ 
अर्थात् ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं किसी भी समय में नहीं था, या तू नहीं था अथवा ये समस्त राजा नहीं थे और न ऐसा ही होगा कि भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे। 
          भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरा जन्म कई बार हो चुका है, तुम्हारा जन्म भी पता नहीं कितनी बार हो चुका है, यहाँ खड़े राजा भी अनेक बार जन्म ले चुके हैं। यानी प्रत्येक जीव इस संसार में पुनः पुनः जन्म लेता है। परन्तु सोचने की बात यह है कि यह संसार कितने लोगों को स्मरण करता है। इस संसार की भलाई के कार्य करने वालों को वह श्रद्धा से याद करता है। संसार का बुरा करने वाले मनुष्यों से वह नफरत करता है।
          संसार में मनुष्यों का आवागमन लगा ही रहता है। जीवन उसी व्यक्ति का सफल माना जाता है, जी शान्तिपूर्वक यहाँ से मुस्कुराते हुए विदा लेता है और लोग उसके जाने पर शोक मनाते हैं। समाज उसे सम्मानपूर्वक याद करके उदास हो जाता है। देश, धर्म और समाज के प्रति दिन-रात सोचने वाले, कार्य करने वाले लोगों को पीढ़ी दर पीढ़ी यानी युगों तक स्मरण किया जाता है। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली होती है।
          मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह किसी भी क्षेत्र में अपना विशेष योगदान दे। उसका जीवन दूसरों के लिए एक उदाहरण बन जाए। लोग उसके इस संसार से चले जाने के बाद, उसे भूलें नहीं। उसकी गाथाएँ, उसके किस्से-कहानियाँ बनकर सबके हृदयों में विद्यमान रहें, गहरी छाप छोड़ दें।
चन्द्र प्रभा सूद

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