शनिवार, 14 नवंबर 2015

दादा-दादी या नाना-नानी पर आरोप

दादा-दादी या नाना-नानी पर हमेशा से यह आरोप लगता रहता है कि वे बच्चों को वे बिगाड़ते हैं। परन्तु आज स्थितियाँ बदल गई हैं और उनके माता-पिता उन्हें बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता।
        इक्कीसवीं सदी के माता-पिता दोनों ही आज उच्च शिक्षा ग्रहण करके नौकरी कर रहे हैं अथवा अपना व्यवसाय कर रहे हैं। दोनों ही अपने-अपने कार्यों में बहुत अधिक व्यस्त रहते हैं। वे अपने उन बच्चों के लिए समय ही नहीं निकल पाते जिनके लिए वे इतनी मेहनत कर रहे हैं। इसलिए वे उस कम समय में बच्चों को बहुत कुछ दे देना चाहते हैं।
          इसके अतिरिक्त जीवन की ऊँचाइयों को छूने की महत्त्वाकाँक्षा रखने वाले वे या तो सन्तान चाहते ही नहीं हैं या फिर एक बच्चे से ही संतोष करना चाहते हैं चाहे वह लड़का हो या फिर लड़की। इसलिए भी वे बच्चों के प्रति बहुत ही संवेदनशील होते जा रहे हैं। 
           बच्चों को उनकी आवश्यकता से कहीं मंहगी वस्तुएँ खरीद कर देते हैं। इससे भी बढ़कर वे बच्चों को दुनिया की हर वो वस्तु खरीद कर देना चाहते हैं जिसे वे खरीद सकते हैं।
         वे सोचते हैं हमारे पास भरपूर पैसा है तो बच्चों को हम ऐश क्यों न कराएँ? हमारे बच्चे किसी भी मंहगी अथवा सस्ती वस्तु के लिए किसी का मुँह क्यों देखें?
          इसीलिए एक घर में यदि दो बच्चे हैं तो वे मिलकर उन खिलौनों से नहीं खेलना चाहते। दोनों के पास ही उनके अपने-अपने खिलौने, बिस्तर व सुन्दर सजे हुए कमरे होते हैं जो सभी आधुनिक उपकरणों से युक्त होते हैं।
          पहले दादा-दादी अथवा नाना-नानी बच्चों से लाड़ लड़ाते थे और जो भी उनकी मनपसंद वस्तुएँ उन्हें खरीदकर देते थे। इसीलिए कहा जाता था कि वे उन्हें सदा बिगाड़ते रहते हैं।
       परन्तु आज माता-पिता इस कार्य को बड़ी कुशलता से कर रहे हैं। बच्चों को न तो वे डाँटते हैं या डपटते हैं और न ही मारते हैं। उनकी हर जायज-नाजायज माँग को पूरा करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। यही कारण है कि बच्चे आज जिद्दी और बददिमाग होते जा रहे हैं।
          वे अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझते, बस अपनी ही धुन में मस्त रहते हैं। उनकी बला से सारी दुनिया भाड़ में जाए, और-तो-और माता-पिता की भी उन्हें कोई चिन्ता नहीं होती पर उनकी माँगे बस पूरी होती रहनी चाहिएँ। किसी के साथ समझौता करके चलना उनकी प्रवृत्ति में ही नहीं है बल्कि शान के विरूद्ध होता है।
          पहले बच्चे अपने नाना-नानी, मौसी या बुआ आदि के घर छुट्टियों में कुछ दिन बिताने के लिए चले जाया करते थे। आज समय के साथ यह व्यवहार भी बदल गया है। माता-पिता को ही विश्वास नहीं आता कि उनके बच्चे वहाँ ठीक से रह सकेंगे तो फिर उन बच्चों के विषय में कहना ही क्या है? वे तो नखरे दिखाएँगे ही, उनके प्यार व सम्मान को भूलकर वहाँ की ढेरों कमियाँ निकालेंगे ही।
          माता-पिता अपने समयाभाव के कारण बच्चों को इतना अधिक बिगाड़ते जा रहे हैं कि फिर स्वयं ही उनसे डरने लगे हैं। बच्चों की सारी गलतियाँ नजरअंदाज करते-करते उनके मोह में अन्धे होते जा रहे हैं और उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
          बच्चों के सुखद भविष्य के लिए उन्हें सभी मंहगी वस्तुएँ अवश्य दिलाएँ पर साथ ही उन्हें सुसंस्कार भी दें जिससे वे अहंकारी न बने। सभी को अपने बराबर समझने की प्रवृत्ति रख सकें। यदि माता-पिता बच्चों को सुसंस्कृत बना सकें तो देश व समाज के प्रति अपने दायित्व का पूर्ण रूप से निर्वहण कर सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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