शनिवार, 7 नवंबर 2015

चारों की परीक्षा

तुलसीदास जी ने वर्षों पहले कहा था जो आज भी उतना ही सटीक है जितना उस काल में था-
          धीरज धर्म मित्र अरु नारी
          आपत्काल परखिए चारी।
मनुष्य के पास जब सुख आता है तब सभी उसके साथी बन जाते हैं। उसका कारण है उसकी भौतिक समृद्धि। कुछ अनजाने लोग स्वार्थवश भी साथ जुड़ जाते हैं। अपने तो खैर साथ हो ही जाते हैं।
          मनुष्य का जब आपात्काल या कष्ट  का समय होता है उस समय यदि कोई उसका साथ देता है तो वही वास्तव में उसका अपना होता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसी विपरीत स्थिति में धैर्य, धर्म, मित्र और पत्नी इन चारों की परीक्षा की जानी चाहिए। यदि ये चारों कष्ट की घड़ी में परीक्षा में खरे उतरते हैं तभी अपने हैं अन्यथा सब नाम के हैं।
        धैर्य की जीवन में बहुत आवश्यकता होती है। इसके बिना मनुष्य हर समय ही बौखलाया-सा और बड़ी ही विचित्र स्थिति में रहता है। अपने अधीर स्वभाव के कारण वह पल भर में विचलित हो जाता है।
       धैर्यशाली व्यक्तियों के जीवन में सदा ही ठहराव होता है। वे किसी भी स्थिति का सामना करने में घबराते नहीं हैं। यदि वे जीवन में आने वाली विपरीत स्थिति का सामना न कर पाएँ तो उन्हें धैर्यवान नहीं कहा जा सकता। धैर्य की परीक्षा मनुष्य के कष्ट और दुख के समय होती है। यदि किसी से चर्चा करें तो वह हमेशा यही कहेगा कि उसके जैसा धैर्यधारी कोई और हो ही नहीं सकता। विपरीत परिस्थिति के आते ही सबकी पोल खुल जाती है।
          धर्म हमारा जन्म-जन्म का साथी होता है। सभी भौतिक रिश्ते-नाते, धन-समृद्धि आदि मनुष्य के इस संसार से विदा होते ही उसे छोड़ देते हैं। उसका धर्म यानि उसके अच्छे या बुरे सभी कृत कर्म उसके साथ ही चलते रहते हैं। जिनका भोग वह सुख-दुख के रूप में करता है। यदि सुख का समय होता है तो मनुष्य बल्लियों उछलता है और सारा श्रेय स्वयं को देता है। परन्तु दुख आने पर सारा दोष ईश्वर को देता है।
          मनुष्य बड़ी-बड़ी कसमें खाता है कि उसके समान अपने धर्म या कर्त्तव्य का पालन करने वाला कोई हो ही नहीं सकता। यदि वह कुसमय आने पर अपने धर्म को नहीं छोड़ता तो वह सत्यत: धर्म का पालन करने वाला है और यदि अपने धर्म को छोड़कर गलत राह पर चल पड़ता है तो वह अपने धर्म से च्युत हो जाता है।
         सच्चे मित्र मनुष्य की पूँजी होते हैं। कहते हैं सच्चा मित्र वही होता है उसके श्मशान जाने तक साथ निभाए। यदि वह सुख का या स्वार्थ का साथी है तब तो आपात्काल में किनारा कर लेगा। यदि वह सच्चा मित्र है तो कंधे-से-कंधा मिलाकर साथ चलेगा।
          नारी यानि पत्नी को भारतीय मनीषी सात जन्मों का साथी मानते हैं। पति और पत्नी में परस्पर सौहार्द, विश्वास और प्रेम होना आवश्यक है। कहते हैं जब मनुष्य का समृद्धि का समय होता है तब तो बेगाने भी गुड़ पर मक्खियों की भिनभिनाने लगते हैं। परिवारी जन तो उस ऐश्वर्य का भोग करेंगे ही, यह तो उनका हक होता है।
        समस्या तब आती है जब मनुष्य को उसका दुर्भाग्य उसे अपने पंजे में जकड़ लेता है। उस समय यदि पत्नी सुखकारी समय की तरह दुख में भी साथ निभाती है तब वह सच्ची जीवन साथी होती है। ऐसा भ होता है कि विपत्ति के समय पत्नी अपना पल्लू झाड़कर अपना रास्ता अलग कर लेती है। ऐसी पत्नी सात जन्मों तक साथ निभाने वाली नहीं हो सकती।
         इसलिए तुलसीदास जी ने धीरज, धर्म, मित्र और नारी की वास्तविकता आपत्ति के समय परखने के लिए कहा है। इस विपत्ति की कसौटी पर ये सभी यदि खरे उतर पाएँ तो मनुष्य का सौभाग्य है अन्यथा दुर्भाग्य।
चन्द्र प्रभा सूद
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