सोमवार, 11 अप्रैल 2016

सत्य से अनजान रहना

इन्सानी प्रवृत्ति है कि वह बहुत जल्दी सब कुछ भूल जाता हैं अथवा अनदेखा करता रहता हैं। समय बीतते-बीतते उसके घावों पर मलहम लग जाती है। वह भली-भाँति जानता है कि जन्म और मृत्यु के बीच की कड़ी है जीवन जिसे हम सब यत्नपूर्वक जीते हैं। परिश्रम करते हैं और अपनी सुख-सुविधा के साधन जुटाते हैं।
           कदम-कदम पर अपनी जीत के जश्न मनाते हुए हमारी प्रसन्नता का किसी प्रकार का कोई पारावार नहीं रहता। उस समय हम चाहते हैं कि सारी कायनात हमारी ही खुशी में शामिल हो जाए और जब हम दुखी हों तब सारा ब्रह्माण्ड हमारे दुख में दुखी होता हुआ दिखाई दे।
           दिन-दिन करके मनुष्य जन्म के बाद बचपन से जवानी की ओर बढ़ता है और फिर वृद्धावस्था की ओर कदम बढ़ाता है। तदुपरान्त मृत्यु उसका वरण कर लेती है। वह हर वर्ष अपने बन्धु-बान्धवों के साथ अपना जन्मदिवस मनाकर आनन्दित होता है। पर वह भूल जाता है कि उसके जीवन का एक वर्ष और कम हो गया और मृत्यु तक पहुँचने की एक साल की दूरी उसने तय कर ली है। यह इस जीवन की सच्चाई है। हम सब लोग इस अटल सत्य से नजरे चुराते रहते हैं। हम बस यही सोचते हैं कि हम आयुप्राप्त हो रहे हैं तथा अधिक अनुभवी बनते जा रहे हैं।
          भर्तृहरि ने 'वैराग्यशतकम्' ग्रन्थ में जीवन के इस सत्य को बहुत ही सुन्दर शब्दों में उदाहरण सहित उद्घाटित किया है-
           व्याघ्रीव  तिष्ठति  जरापरितर्जयन्ति।
           रोगाश्च  शत्रव  इव  प्रहरन्ति  देहम्॥
           आयु: परिस्त्रवतिभिन्नघटादिवाम्भो।
           लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम्॥
अर्थात् बुढ़ापा बाघ की तरह गुर्राता हुआ सामने खड़ा है, शत्रु की तरह रोग शरीर पर नित्य प्रहार करते हैं, छेदयुक्त घट की तरह आयु का नित्य क्षय हो रहा है लेकिन आश्चर्य है कि फिर भी लोग अहित आचरण कर रहे हैं।
         इस श्लोक का कथन है कि वृद्धावस्था बाघ की तरह गुर्राते हुए, मुँह बाए हमारी ओर बढ़ रही है। हमें इस बाघ से इसलिए डर नहीं लगता क्योंकि वह सिर्फ गुर्रा रहा है, हमें खाने नहीं आ रहा। इसलिए उस बाघ को हम अनदेखा करके चैन की बाँसुरी बजाते हैं। उस समय अपने झूठे अहं के कारण हम यही सोचते हैं कि जब वह हमें खाने के लिए आएगा तब हम उसे भी देख लेंगे।
         ज्यों-ज्यो आयु बीत रही है और हम वृद्धावस्था की ओर जा रहे हैं, हमारा शरीर रोगों का घर बनता जा रहा है। वह अशक्त हो रहा है। जिस प्रकार घड़े में छेद हो जाने पर पानी बूँद-बूँद करके समाप्त होता रहता है, उसी प्रकार एक-एक दिन करके मनुष्य मृत्यु की ओर कदम बढ़ाता रहता है। फिर भी मृत्यु की गोद में समा जाने के भय को छोड़कर मनुष्य हर प्रकार के अच्छे-बुरे कर्मों को करने में व्यस्त रहते हैं। न उन्हें वृद्ध होने का भय होता है और न ही मृत्यु का डर। इसीलिए करणीय-अकरणीय कार्यों को करके वे प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
            किसी की मृत्यु होने पर किसी मृत शरीर को देखकर क्षणिक वैराग्य मनुष्य के मन में आता है। कभी श्मशान घाट जाने पर संसार की असारता का ज्ञान मन में कुछ पल के लिए अवश्य आता है। पर वह क्षणिक वैराग्य दूसरे ही पल संसार के आकर्षणों से आवेष्टित (ढक) जाता है। फिर आरम्भ हो जाते है वही दुनिया के सभी आडम्बर और ढकोसले।
          इस सबको लिखने का यह तात्पर्य कदापि नहीं कि मनुष्य दीन-दुनिया को भूलकर जंगलों में तप करने के नाम पर उसे छोड़ जाए। यानि पलायनवादी बन जाए। दुनिया में रहते हुए, सभी सुख-सुविधाओं का उपभोग करते हुए मनुष्य जल में कमल की तरह रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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