सोमवार, 4 अप्रैल 2016

हितोपदेश के अनुसार

प्रिय व्यक्ति, सत्कर्म, अच्छी पत्नी, बुद्धिमान व्यक्ति, लक्ष्मी, मित्र और पुरुष इन सबके विषय में हितोपदेश के निम्न श्लोक में बहुत सुन्दर विवेचना की गई है-
स स्निग्धोSकुशलान्निवारयति यस्तत्कर्म यन्निर्मलम्।
सा स्त्री यानुविधायिनी स मतिमान्य: सद्भिरम्यर्च्यते॥
सा धीर्या न मदं करोति स सुखी  यस्तृष्णया मुच्यते।
तन्मित्रं  यदकृत्रिमं  स  पुरुषो  य:  खिद्यते  नैन्द्रियै:॥       अर्थात् प्रिय व्यक्ति वही है जो अमंगल का निवारण करे, सत्कर्म वही है जो निर्मल है, पत्नी वही है जो अनुगामिनी है, बुद्धिमान वही है जो सज्जनों के द्वारा पूजित होता है, लक्ष्मी वह है जो मद उत्पन्न न करे, सुख वही है जो तृष्णा से विमोचित करे, मित्र वही है जो अकृत्रिम (बिना दिखावे का) है एवं पुरुष वही है जो इन्द्रियों के वश में नहीं है।
           प्रिय व्यक्ति प्रिय करने वाला होता है। वह अपने प्रियजनों की हर अमंगल से रक्षा करता है। वह नहीं चाहता कि उसके प्रिय लोग किसी भी कारण से दुख पाएँ या उनको जीवन में कभी गर्म हवा की तपिश सताए। वह उनके जीवन में खुशियाँ लाने का यथासम्भव प्रयास करता है।
           सत्कर्म वही हैं जो निर्मल हैं यानि अन्त:करण को शुद्ध और पवित्र करने वाले हों। रैदास जी ने कहा था कि 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि सत्कर्म करने वाला अपने इहलोक और परलोक दोनों को सुधारता है। उसके मन में कभी कुमार्ग की ओर प्रवृत्त होने के विषय में सोच ही नहीं सकता।
           पत्नी वही है जो अनुगामिनी है अर्थात् अपने जीवन साथी के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चले। उसके सुख-दुख के समय उसकी परछाई बनकर रहे। अपने व्यवहार से कभी ऐसा प्रदर्शन न करे कि वह अपने पति के घर में सामञ्जस्य नहीं बिठा सकती। वही पत्नी भाती है जो गृहस्थी को कुशलता से चलाए।
            बुद्धिमान वह मनुष्य कहा जाता है जो सदा सज्जनों के द्वारा पूजित होता है। अपने विवेक के कारण सदा सत्संगति में रहता है। हर प्रकार के द्वन्द्वों को सहन करने की क्षमता रखता है।
           लक्ष्मी के विषय में हम सभी जानते हैं कि वह एक स्थान पर टिककर नहीं रह सकती। आज यहाँ है तो पलक झपकते ही वहाँ पहुँच जाती है। राजा को रंक बनाने और रंक को राजा बनाने की भरपूर क्षमता रखती है। अपने साथ व्यसनों को भी लेकर आती है। आसमन से जमीन पर पटकना इसे बखूबी आता है। इसलिए उस पर घमण्ड नहीं करना चाहिए। लक्ष्मी वही है जो मद उत्पन्न न करे।
          सुख वही कहलाता है जिससे तृष्णा दूर रहे। यदि एक के बाद एक तृष्णा मनुष्य को घेरे रखेंगी तो वह कोल्हू के बैल की तरह अपना सुख-चैन गंवाकर दिन-रात परिश्रम करता रहेगा। फिर भी कोई-न-कोई तृष्णा उसे भटकाती ही रहेगी। सुख की चाह रखनी हो तो तृष्णाओं का त्याग करना पड़ता है।
             मित्र उसे कहते है जो आडम्बर रहित, सरल व निश्छल होता है। वह सदा अपने मित्र का हितचिन्तक होता है। उसके लिए हमेशा शुभ करने वाला और सोचने वाला होता है। सुख-दुख के समय अपने मित्र के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर वह खड़ा रहता है।
             मनीषियों का कथन है कि वास्तव में मनुष्य वही है जिसे अपने ऊपर संयम है। वह कदापि इन्द्रियों के वश में नहीं होता। वह जानता है कि इन्द्रियों के वश में हो जाने का अर्थ है अपने लक्ष्य से भटक जाना। इनके अधीन होने वाले व्यक्ति को कभी शान्ति नहीं मिल सकती।
           हितोपदेश के इस श्लोक के अनुसार व्यवहार करने वाले ही वास्तव में जीवन को सफलतापूर्वक जीते हैं। इन बातों का ध्यान रखने से मनुष्य सदा ऊँचाइयों को छूता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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