शनिवार, 16 अप्रैल 2016

सुख की चाह में दुःख

सुख की चाह में
उसका स्वागत करने
खड़ी थी द्वार पर घर के
अचानक दुख के प्रहार से तिलमिला गई।

समझ न सकी
आश्चर्यचकित रही
मूक, चेतना शून्य होकर
बस सोचने के लिए विवश हो गई थी मैं।

ऐसी चोट लगी
दिल भी टूट गया
नहीं बहला सकी और
मन मसोसकर रह गई निराश-उदास मैं।

अबूझ पहेली थी
सुलझाने में लग गई
कोई होश न रहा समय का
ढूँढती रही सिरा कोई मेरे हाथ आ जाए।

क्यों मेरे साथ ऐसा
मजाक किया किसी ने
नहीं बता पाया था कोई भी
सबसे पूछ-पूछकर व्यथित हो रही हूँ मैं।

असार संसार में
क्या सब जन के लिए
कोई बन्धन है या नियम
जिसे विधि का विधान कह टाल देते हैं।

मैं भटक रही हूँ
यहाँ वहाँ धरा पर
आखिर माजरा क्या है
शायद इसे मनुष्य का प्रारब्ध कहते हैं।

तभी धीरे से
मेरे कान में आकर
कहा किसीने मुझसे
पगली कहकर मेरा भी उपहास किया।

तब हंसते हुए
प्यार से, हौले से
थपथपा कर गाल मेरा
मुझे दिलासा देते हुए चौका दिया मुझे।

तेरे ही कर्मो की
छाया मिल रही है
तुझे इस जहाँ में अब
कम है या अधिक बस जो भी है तेरी है।

अपनी ही इस
कर्मभूमि में अपने
करणीय कर्मों की
जैसी फसल बोओगी वैसी ही काटोगी।

सुख चाहती हो
तो सब शुभ कर लो
किसी का अहित न करो
अपने अंतस की गहराइयों से कभी भी।

अन्यथा मिलेगा
न मनचाहा फल कभी
अपना रास्ता तय कर
चलते चलो सुखों की चाह में निरन्तर।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें