बुधवार, 17 अगस्त 2016

प्रेम दुधारी तलवार जैसा

प्रेम का मार्ग दुधारी तलवार पर चलने का नाम है। जहाँ चूक हुई वहीँ सब समाप्त हो जाता है। प्रेम एक ऐसी उच्च अवस्था होती है जिसमें स्वयं को ही मिटा देना होता है। जब तक स्वयं को मिटा देने की भावना मनुष्य में न आ जाय तब तक वह प्रेम की पराकाष्ठा को छू भी नहीं सकता। इसीलिए कहा है-
           प्रेम गली अति संकरी जा में दो न समाए।
अर्थात प्रेम का रास्ता इतना तंग है कि इसमें दो लोग एकसाथ नहीं गुजर सकते। दूसरे शब्दों में कहें तो जब तक दोनों का अहं परस्पर टकराता रहेगा तब तक प्रेम हो ही नहीं सकता। जब वे दो से एक बन जाते हैं, मन से उनका जुड़ाव हो जाता है तभी प्रेम परवान चढ़ता है।
        स्वार्थ में अन्धे होकर प्रेम नहीं किया जा सकता, उसके लिए तो अपना सर्वस्व समर्पित करना पड़ता है। प्रेम कुछ पाने का नाम नहीं अपितु उसमें पूर्ण समर्पण करना होता है। अपनी हस्ती को मिटाकर ही वास्तव में सच्चा प्रेम किया जा सकता है और पाया जा सकता है।
        एक माँ का निश्छल प्रेम अपने बच्चे की एक मुस्कान पर बलिहारी हो जाता है। प्रेम वही सात्त्विक होता है जहाँ वह अपने जीवन की परवाह न करते हुए अपना सब कुछ अपनी सन्तान के लिए दाँव पर लगाने के लिए तैयार हो जाती है।
       सेवक और स्वामी में कभी प्रेम नहीं हो सकता क्योंकि वहाँ स्वार्थ प्रधान होता है। दोनों को एक-दूसरे से कुछ-न-कुछ पाने की आशा होती है। सेवक को स्वामी से धन की कामना होती हे और मालिक को अपने अधीनस्थ से अच्छा कार्य करने की चाह होती है। इसलिए वहाँ पर प्रेम की संभावना कभी हो ही नहीं सकती।
       आज विश्व में प्रेम की संभावना ही प्रायः समाप्त होती जा रही है। आज प्रेम दूसरे की हैसियत देखकर किया जाता है। उसमें भी यही भाव प्रधान होता है कि मुझे दूसरे से क्या मिलेगा? जबकि विशुद्ध प्रेम वही होता है जो दूसरे की सामाजिक और आर्थिक स्थिति नहीँ देखता। वह तो अपने साथी के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होकर स्वयं को मिटा देने के लिए तत्पर रहता है।
         हमारे भारत देश में यद्यपि पति-पत्नी साथ रह रहे हैं और इस साथ रहने को वे प्रेम समझ बैठते हैं। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि मात्र एक-दूसरे के साथ रहने को ही प्रेम नहीं कहा जा सकता। इस प्रेम को सरासर धोखा कह सकते है। साथ रहने भर से प्रेम कभी नहीं हो सकता है।
         परस्पर कलह-क्लेश करके किसी तरह जीवन साथी का जीवन चौबीसों घंटे नरक बनाकर जिन्दगी गुजार देना प्रेम नहीं कहला सकता। प्रेम और समर्पण की कमी के कारण ही आज भारत में तलाक लेने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।
        प्रेम एक पुलक है और एक प्रकार का उत्साह है। वह सच्चे मन से की गई एक प्रार्थना मात्र है। इस प्रेम की अपनी ही एक महक होती है जो दूर-दूर तक फैलती है। युगों तक उसे जनसाधारण याद रखता है प्रेम अपने आप में एक ऐसा संगीत है जो मन को ही नहीं मनुष्य की आत्मा को भी तृप्त कर देता है।
         इस समर्पित प्रेम का उदाहरण मीरा बाई हैं, जिन्होंने समपूर्ण राज्य भोगों का परित्याग करके भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ली। उन्हें श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई भाता ही नहीं था। सूरदास जी की भक्ति का भी कोई सानी नहीं है।
         यहाँ किसी विवाद में न पड़ते हुए श्री राधा जी और गोपिकाओं की कृष्ण भक्ति की चर्चा भी कर सकते हैं, जिनकी भक्ति की प्रशस्ति में आज तक अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं। लोग श्रद्धापूर्वक उनका महिमा मण्डन करते नहीं अघाते। इसे ईश्वर भक्ति का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है।
          ईश्वर से किया जाने वाला वह प्रेम वस्तुतः चरम प्रेम होता है जब साधक अपने पूर्ण समर्पण के साथ उसकी शरण में जाता है। भक्त के मन में इहलौकिक और पारलौकिक कोई कामना नहीं रह जाती। वह बस उसी परमात्मा में लीन हो जाना चाहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें