रविवार, 21 अगस्त 2016

पैसे का दम्भ

एक लघुकथा पोस्ट कर रही हूँ। नमन तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ा है। वह मध्यमवर्गीय परिवार का एक साधारण-सा बच्चा है। उसका पिता ड्राइवर है। वह सातवीं कक्षा में पढ़ता है। पढ़ने में वह कोई विशेष योग्यता वाला छात्र नहीं है। खेलों के क्षेत्र में भी वह अपने विद्यालय का नामी विद्यार्थी नहीं है।
          उसके पिता की आमदनी इतनी नहीं थी कि वे तीन बच्चों और अपने माता-पिता सहित सात लोगों की सारी आवश्यकताएँ सरलता से पूरी कर सके। उसकी हार्दिक इच्छा थी कि वह अपने बेटे को किसी अच्छे और बड़े स्कूल में पढ़ाए। वह नहीं चाहता कि उसका बेटा उसकी तरह ही अभावों में अपना जीवन व्यतीत करे।
         इधर सरकार ने कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए एक नई स्कीम शुरू की है। इसमें सभी स्कूलों को आदेश दिया गया कि वे आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को अपने स्कूल में प्रवेश दें। नमन के पिता ने उसका दाखिला एक प्रतिष्ठित स्कूल में करवाने के लिए बहुत मेहनत की। अन्तत: नमन को वहाँ प्रवेश मिल ही गया।
        आगे की उसकी यात्रा उसके लिए इतनी सरल नहीं थी। वहाँ स्कूल में बड़े घरों के बच्चे बढ़िया बेग, लंच बाक्स और अपने पर्स में खूब सारे पैसे लाते थे। वे नमन का मजाक उड़ाते थे।
        उसके सामने जब स्कूल की कैन्टीन से जब तरह-तरह की मंहगे खाद्य खाते थे तो उसका मन भी ललचाता था। अपनी मजबूरी पर वह चुप रह जाता था। खेल के मैदान में भी वे उसे चिढ़ाते रहते थे। कभी-कभी अड़ंगी देकर नीचे भी गिरा दिया करते थे।
          एक दिन तो हद हो गई जब उसकी कक्षा के कुछ बच्चों ने उसे क्लास में रखे कूड़ेदान में बिठा दिया। जब उसने इसका प्रतिरोध किया तो उसे कहने लगे- "तू हमारी बराबरी करेगा? तेरा बाप ड्राइवर है तो बड़ा होकर तू भी ड्राइवरी करेगा।"
         उन पैसे वाले बच्चों की इस हरकत पर उसे गुस्सा बहुत आया। अपने घरेलू हालात और अपनी बेबसी पर उसे बहुत रोना भी आ रहा था परन्तु वह अपना मन मसोसकर चुप रह गया।
चन्द्र प्रभा सूद
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