शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

क्रोध और हर्ष का अतिरेक

मनुष्य जब क्रोध में हो तब उस समय उसे कोई अहं फैसला नहीं लेना चाहिए। कहते हैं कि क्रोध अन्धा होता है, वह मनुष्य के विवेक का हरण का लेता है। तब वह कुछ भी सोचने-समझने के काबिल नहीं रहता। वह अपने-पराए का भेद करने में असमर्थ हो जाता है।
         उस क्रोध की अधिकता के समय लिया गया कोई भी निर्णय उसके विरुद्ध जा सकता है। दुर्भाग्यपूर्ण लिए गए अपने उस निर्णय के कारण फिर उसे जीवन भर प्रायश्चित करना पड़ सकता है।
         इसी प्रकार जब मनुष्य किसी विशेष उपलब्धि अथवा किसी कारण से प्रसन्न हो तब उसे किसी से कोई वादा नहीं करना चाहिए। अधिक ख़ुशी में इन्सान के पैर जमीन पर नहीं पड़ते। तब ऐसा लगता है कि मानो उसे पंख मिल गए हैं और वह उड़ता फिरता है। उस समय भावना में बहकर किया गया वही वादा ही उसके जी का जंजाल बन जाता है।
         रामायणकाल में महाराजा दशरथ की अन्तकाल में हुई दुर्दशा को आज तक स्मरण किया जाता है। इस बात को सदा याद रखना चाहिए कि सोच-समझकर वादा करने वाले को कभी किसी के सामने नीचा नहीं देखना पड़ता। न ही उन्हें किसी के समक्ष नजरें नहीं झुकाकर शर्मिंदगी उठानी पड़ती है।
         यदि कोई व्यक्ति किसी भी कारण से क्रोध दिलाना चाहे तो उसके झाँसे में नहीं आना चाहिए। यदि वह अपने उद्देश्य यानि गुस्सा दिलाने मे सफल रहता हैं तो निश्चित मानिए कि वह व्यक्ति विशेष उसके हाथ की कठपुतली बनता जा रहा है। वह जब चाहे उसे नाच नचा सकता है। फिर वह नैतिक-अनैतिक कोई भी अपना मनचाहा कार्य उससे करवा सकता है।
         क्रोध और प्रसन्नता मानव मन की दो अवस्थाएँ हैं। क्रोध में मनुष्य को अपना आपा नहीं खोना चाहिए, होश में रहना चाहिए। क्रोध के कारण दुर्वासा ऋषि को आजतक सम्मान नहीं मिल पाया जिसके वे हकदार थे। इसी क्रोध के कारण ही मनुष्य के मन में प्रतिशोध लेने की दुर्भावना बलवती होने लगती है।
         इस भावातिरेक में वह अपना विरोध करने वाले किसी का भी कत्ल तक कर बैठता है और फिर कानून का मुजरिम बनकर सारी जिन्दगी सलाखों के पीछे बिता देता है। उसके घर-परिवार के लोग और उसके भाई-बन्धु उससे शीघ्र किनारा कर लेते हैं। जिनके लिए वह अपना सारा जीवन दाँव पर लगा देता है, वही उस कृत्य के लिए उसकी भर्त्सना करते हुए नहीं थकते।
       प्रसन्नता भी मनुष्य के सिर पर चढ़कर बोलने लगती है। बहुत से लोग होते हैं जिन्हें ख़ुशी भी रास नहीं आती। इन ख़ुशी के पलों में उनका दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच जाता है। वे पतंग की तरह ऊँचे उड़ने लगते हैं और सोचते हैं कि उनकी डोर को कोई काटने का साहस नहीं कर सकता।
         दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि वे गुब्बारे की तरह फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। किन्तु वे भूल जाते हैं कि कोई अपना ही उसमें पिन चुभोकर उन्हें धराशाही कर देगा और वे केवल देखते ही रह जाएँगे, कुछ कर नहीं पाएँगे।
        इस प्रसन्नता के आवेग में भी गलत फैसले ले लिए जाते हैं जो निकट भविष्य में जी का जंजाल बन जाते हैं। उस समय मनुष्य भूल जाता है कि उसकी यह ख़ुशी ही उसके दुःख का कारण बन जाती है और वह मूक दर्शक बना बस हाथ मलता रह जाता है, कोई उपाय करने के लिए उसकी बुद्धि नाकाम हो जाती है।
         मनुष्य के जीवन में क्रोध का आवेग हो अथवा प्रसन्नता का अतिरेक हो दोनों ही स्थितियों में उसे स्वयं पर नियन्त्रण रखना चाहिए। क्रोध यमराज का दूसरा रूप होता है, वह सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। अति प्रसन्नता भी विनाश का कारण बनती है। इसलिए दोनों की अति से यत्नपूर्वक बचना चाहिए, इसी में समझदारी और सबका कल्याण है।
चन्द्र प्रभा सूद
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