गुरुवार, 4 अगस्त 2016

परिवार संयुक्त अथवा एकल

कुछ दशक पूर्व हमारे भारत देश में जब संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलन में थी तब घर-परिवार के सब लोग मिल-जुलकर रहते थे। सबके सुख-दुःख साझा होते थे और आपसी सौहार्द और भाईचारे के चलते वे सरलता से कट जाया करते थे। इसी प्रकार शादी-ब्याह आदि सभी शुभकार्य और त्यौहार भी भरपूर मस्ती से, आनन्द से मनाए जाते थे।
        आज के समय की तरह बेशक बहुत अधिक लोग तब पढ़े-लिखे नहीं थे, उन्होंने उच्च शिक्षा ग्रहण नहीं की थी, फिर भी परिवार एक सूत्र में बंधा हुआ होता था। आज की पीढ़ी उच्च शिक्षा प्राप्त करके अपने योग्य होने के अहं का शिकार हो रही है। वे मात्र अपने स्वार्थ पूर्ण करना चाहती है। उसे उससे आगे कुछ सूझता ही नहीं है।
         शायद युवावर्ग के इस स्वार्थी रवैये के कारण ही संयुक्त परिवार टूटते जा रहे हैं। उनके स्थान पर विदेशों की नकल करते हुए एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इन एकल परिवारों की ऊपरी चमक-दमक मन को अवश्य ही ललचाती  है। यह भी लगता है की हम स्वतन्त्र हैं और जैसा चाहें अपनी मर्जी से कुछ भी कर सकते हैं। किसी का कोई बन्धन नहीं है, न ही कोई रोकटोक है।
         यह आजादी लगती तो बहुत अच्छी है परन्तु उससे होने वाली परेशानियाँ कहीं अधिक होती हैं। संयुक्त परिवारों के होते हुए किसी माता-पिता को अपने बच्चों के खाने-पीने, आराम करने, खेलने आदि की  चिन्ता नहीं रहती थी।
       माता-पिता अपना सारा ध्यान अपने कार्य पर लगा सकते हैं। जहाँ बड़े भाई-बहन होते हैं वहाँ बच्चों की गृहकार्य और पढ़ाई की चिन्ता भी समाप्त हो जाती है। लड़ते-झगड़ते बच्चे कब बड़े हो जाते हैं पता भी नहीं चलता। इन परिवारों के बच्चों को परस्पर मिलकर रहना, दूसरों को सहन करना, मिल-बाँटकर खाना, दूसरों के साथ सामञ्जस्य स्थापित करना आदि गुण बड़ों की देखादेखी अपने आप आ जाते हैं।
           जबकि एकल परिवार के बच्चे अत्यधिक लड़-प्यार और ध्यान दिए जाने के कारण असहिष्णु, जिद्दी और नकचड़े हो जाते हैं। प्रायः उन बच्चों को किसी से भी मिलना पसन्द नहीं आता। यदि दो दिन के लिए भी मेहमान घर आ जाएँ तो वे परेशान हो जाते हैं। इसलिए वे किसी पार्टी या रिश्तेदारी में जाना नहीं चाहते। उन्हें सिर्फ अपने से मतलब होता है किसी दूसरे से नहीं।
       संयुक्त परिवार में रहते हुए घर में ताला लगाकर जाने की आवश्यकता नहीं होती। कहीं जाना हो तो बच्चों को घर पर छोड़ देने पर भी उनकी चिंता से मुक्त रहा जा सकता है। ऐसे परिवार हर दृष्टि से सुरक्षित होते हैं। कहते हैं- ‘एकता में बल होता है।’
        जिस तरह बच्चों की परवरिश संयुक्त परिवार में सरलता हो जाती है उसी प्रकार घर में बीमार व्यक्ति की तीमारदारी, बड़े- बुजुर्गों की देखभाल, आने वाले अतिथियों का स्वागत सत्कार, घर में किसी सदस्य के साथ कोई अनहोनी घटना का घट जाना आदि के समय सभी परिवारी जनों के सहयोग से इनका निभाव सरलता से हो जाता है। किसी एक को सारा समय खटना नहीं पड़ता।
       एकल परिवार में रहते हुए यह सारी समस्याएँ सुलझाने में बहुत कठिनाई होती है। सबसे बड़ी बच्चों की चिन्ता सताती रहती है। जितनी अधिक बाजुएँ होंगीं, कार्य उसी अनुपात में होगा। वैसे आज का युवा अपना भला-बुरा अच्छी तरह समझता है। इसलिए वे संयुक्त परिवार की ओर लौट रहा है।
        हाँ, जो युवा रोजी-रोटी के चक्कर में घर से दूर रहते हैं, उनकी बात अलग है। वहाँ दूरी से अधिक उनकी अपनी मज़बूरी होती है जिसके लिए सदा उसे कोसते नहीं रहना उचित नहीं होता।
         जहाँ तक सम्भव हो अपने निजी स्वार्थो और झूठे अहं को आड़े न आने देकर परिवार का सुरक्षा कवच अपनाएँ। इस प्रक्रिया में यदि अपने मन को मारकर बच्चों की सुरक्षा और उनके भविष्य के लिए समझौता भी करना पड़े तो यह सौदा मँहगा नहीं है।
चन्द्र प्रभा सूद
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