शनिवार, 17 सितंबर 2016

व्यापक और व्याप्त

ईश्वर को हम सर्वव्यापक मानते हैं। वह इस ब्रह्माण्ड के कण-कण में व्याप्त है। उस परमात्मा की सत्ता का हम अनुभव तो कर सकते हैं पर उसे इन भौतिक चक्षुओं से देख नहीं सकते।
          उसकी इस व्याप्ति का अर्थ हम कर सकते हैं - व्याप्त होने की अवस्था या भाव, विस्तार या फैलाव और सभी अवस्थाओं में प्रायः व्याप्त होने का भाव।
          व्याप्ति के हम दो भेद कर सकते है- 1 संयोग व्याप्ति  2 स्वरूप व्याप्ति
         संयोग व्याप्ति-  इसमें अलग-अलग चीजों का मिलना संयोग होता है। हम दूध और चीनी दो अलग-अलग पदार्थ लेते हैं। यदि दूध में चीनी को मिला दो तो वह दूध में घुल-मिलकर उसी का ही भाग बन जाती है। तब उन दोनों को पृथक करना किसी के लिए भी नामुमकिन हो जाता है। इसी प्रकार आटे में मिलाए नमक को भी हम अलग नहीं कर सकते।
        स्वरूप व्याप्ति-  इसका तात्पर्य है एक ही पदार्थ का स्वरूप परिवर्तित हो जाना। स्वर्ण से यदि हम आभूषण बनाते हैं तो सोने का मात्र रूप बदलता है, इस समय भी वही सोना उसमें रहता है।
         इसी प्रकार ईश्वर और प्रकृति दोनों वैसे तो अलग-अलग हैं पर प्रकृति भी उसी ईश्वर का ही रूप है। सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, नदियाँ, पर्वत, सागर, पेड़-पौधे सभी उसके ही रूप हैं। इसीलिए इनकी समय-समय पर इनकी उपासना भी की जाती रहती है।
        जब ईश्वर ने कामना की तो उसने अपनी परमात्मा में से अनेक अंश बनाकर जीवों की सृष्टि कर दी। जलचर, नभचर और भूचर सभी जीवों की मालिक ने रचना की। हम मनुष्यों को भी उसने रचा। इन सभी जीवों में व्याप्त उस परमपिता परमात्मा की छवि को हम चाहें तो देख सकते हैं।
        यहाँ तर्कशास्त्र का उदाहरण प्रस्तुत करती हूँ। वह कहता है-
              'यत्र यत्र धूम: तत्र तत्र वह्नि:।'
अर्थात जहाँ जहाँ धुआँ होता है वहाँ वहाँ पर अग्नि होती है।
        कहने का तात्पर्य यही है कि दूर बैठे व्यक्ति को जलती हुई आग नहीं दिखाई दे रही, उसे केवल उड़ता हुआ धुआँ दिखाई दे रहा है। इसका यह अर्थ तो नहीं हो सकता कि सिर्फ धुआँ ही है, आग नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो बिना आग के धुआँ हो ही नहीं सकता।
         व्याप्ति का पूर्ण रूपेण ज्ञान हो गया है यह नहीं माना जा सकता। व्याप्ति का अन्तर् अर्थात मन से प्रत्यक्ष होता है, यह मान्य नहीं हो सकता क्योंकि अन्त:करण या मन बाह्य इन्द्रियों के सर्वथा अधीन होता है। इसीलिए कभी भी मन स्वतन्त्र रूप से बाह्य विषयों को ग्रहण करने के लिए उद्यत नहीं देखा जाता है। व्याप्ति के इस अनुमान का प्रमाण से साक्षात्कार सम्भव नहीं होता।
        अन्य पदार्थों का विश्लेषण न करके हम अपने बारे में विवेचना करते हैं। हम सारा समय साँस लेते हैं, यह वायु हमारी जीवनी शक्ति कहलाती है। फिर भी हम उस वायु को प्रत्यक्ष रूप से नहीं देख सकते, केवल उसका अनुभव कर सकते हैं।
        मन को भी हम नहीं देख सकते, बस यही जानते हैं कि वह है जो हम सबको अपने वश मे करके रखता है। हम उसी के कहे अनुसार उठते-जागते हैं यानी दुनिया के सारे व्यापार करते हैं। चाहकर भी हम उसको नकार नहीं सकते।
        जीव के गुण-दोष आदि सभी स्वभाव के अंश हैं जिन्होंने मात्र अनुभव किया जा सकता है, उन्हें अपनी इन आँखों से देख या छूकर परख नहीं सकते। इसी प्रकार एक नन्हें से बीज में कहीं भी विशाल वृक्ष दिखाई नहीं देता परन्तु समय रहते वह बीज उस महान वृक्ष में परिवर्तित हो जाता है। परिणाम को देखकर हम ये सब अनुमान लगाते रहते हैं। लकड़ी में व्याप्त अग्नि को भी हम देख नहीं सकते पर उसे जलाकर प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं।
         उसी प्रकार  ब्रह्माण्ड के इस विस्तार को देखकर उस प्रभु के अस्तित्व का स्वतः ही बोध हो जाता है। इस पर भी कोई व्यर्थ ही विवाद करे अथवा उसकी परम सत्ता को स्वीकार न करते हुए उसे चुनौती दे तो उससे बड़ा मूर्ख इस संसार में और कौन हो सकता है?
चन्द्र प्रभा सूद
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