गुरुवार, 8 सितंबर 2016

मूड के गुलाम हम

मानव मन उसे बड़े ही नाच नचाता है। यह सदा आगे-ही-आगे भागता रहता है। इसकी गति बहुत तीव्र होती है। मनुष्य देखता ही रह जाता है और यह पलक झपकते ही पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाकर वापिस लौट आता है। इससे पार पाना बहुत ही कठिन होता है। यह चाहे तो मनुष्य को सफलता की ऊँचाइयों पर पहुँचा सकता है और चाहे तो गर्त में ढकेल सकता है।
        हमारा यह मन नित नए मूड पर आधारित रहता है। जिसे भी देखो वह यही कहता सुनाई पड़ता है कि मेरा मूड नहीं है। कभी प्रसन्न तो कभी उदास रहता है। कभी-कभी बच्चों की तरह चहकने लगता है, तब ऐसा लगता है मानो इन्सान के पैर जमीन पर ही नहीं पड़ रहे। कभी उदास या मायूस हो जाता है और फिर निराशा के सागर में डूबने-उबरने लगता है। कभी ऐसा उखड़ जाता है कि इन्सान कहने लगता है कि मेरा किसी काम में मन नहीं लग रहा।
        ये सब इस मन की अवस्थाएँ हैं जो समय-समय मनुष्य को अपना रंग दिखाती रहती हैं। ईर्ष्या-द्वेष, हर्ष-विषाद, क्रोध-प्यार, आश्चर्य आदि भावनाएँ भी इसी मन में निवास करती हैं। ये भाव उसके चरित्र का एक हिस्सा बन जाते हैं। जिस भी भाव की अधिकता समय पर विशेष होती है, उसी के अनुसार मनुष्य व्यवहार करने लगता है।
        मन को मौजी इसीलिए कहते हैं कि यह अपनी ही धुन में रहता है। मानो इसे किसी से कोई लेना-देना ही नहीं हैं। मनीषी कहते हैं-
         मन के हारे हार है और मन के जीते जीत।
अर्थात यदि मनुष्य अपने मन की बात मानकर, निराश होकर, थक-हारकर बैठ जाए तो असफलता ही उसके हाथ लगेगी। परन्तु यदि मनुष्य अपने मन की निराशा को दरकिनार करके साहसिक कार्य कर जाता है तो कोई ऐसा कारण नहीं कि वह सफलता की सीढ़ियाँ न चढ़ सके। अब यह निर्णय तो उसका अपना ही होता है कि वह अपने जीवन को किस ओर ले जाना चाहता है।
          मन को हम चमत्कारी कह सकते हैं। भाषा की दृष्टि से यदि मन के बाद न शब्द जोड़ दिया जाए तो एक नया शब्द मनन बन जाता है। इसके विपरीत यदि मन से पूर्व न शब्द को जोड़ा जाए तो नया शब्द नमन हो जाता है। मनुष्य यदि अपने जीवन में यथायोग्य प्रणाम अथवा नमन करे और मनन करने का अभ्यास कर ले तो निस्संदेह उसका यह जीवन सार्थक हो जाएगा।
        यह मन हमारे शरीर रूपी रथ की लगाम है। इस लगाम को अनुशासन में रखना बहुत आवश्यक होता है। इस पर विवेक या बुद्धि का नियन्त्रण होना चाहिए। यदि लगाम न कसी जाए तो इन्द्रियाँ रूपी घोडे यहाँ वहाँ भागने लगते हैं। यदि वह इसे चलाने में कोताही करेगा तो मानव शरीर में बैठा यात्री आत्मा अपने गन्तव्य यानी मोक्ष तक नहीं पहुँच सकता।
          हमारा यह मन आकर्षक और लुभावने रास्तों पर चलकर बड़ा खुश रहता है, उसे शार्टकट भाते हैं। चाहे आगे जाकर उस गलती का कितना ही भयंकर परिणाम क्यों न हो। इस मन का क्या? वह तो अपने बचाव में सौ बहाने गढ़ लेगा और स्वयं को सन्तुष्ट कर लेगा। लेकिन वास्तविकता तो यही है कि भुगतना तो मनुष्य को ही पड़ता है। चारों ओर से प्रश्नों की बौछार को उसे ही सहना होता है।
        यह मन भी सच्चाई और ईमानदारी की कठिन डगर पर चलने के लिए मनुष्य को हमेशा हतोत्साहित करता है। हालाँकि यह मार्ग कठिन भी होता है और लम्बा भी होता है पर इस पर चलने से हमेशा शुभ ही होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि मनुष्य को सफलता इसी राह पर चलकर मिलती है।
         मन के कहने पर यदि मनुष्य चलने लगें तो अनेकश: परेशानियों का सामना करना पड़ जाता है। इसलिए उन्नति अथवा सफलता की कामना करने वाले लोगों को मन के अनुसार चलने के बजाय अपने तरीके से उसे चलाना चाहिए। उसे यत्नपूर्वक साधकर अपनी मर्जी से चलाना ही श्रेयस्कर होता है। इससे मनुष्य का जीवन भटकाव से बचा रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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