सोमवार, 5 सितंबर 2016

जीव का पुनर्जन्म

पुनर्जन्म का अर्थ पुनः या फिर से जन्म। हम कह सकते हैं कि इस संसार में जीव के जन्म के अनन्तर अपने कर्मों के अनुसार प्राप्त समयावधि के पश्चात मृत्यु होती है। फिर उस मृत्यु के बाद जीव एक बार पुनः जन्म लेता है। यही पुनर्जन्म कहलाता है। पुनर्जन्म की इन घटनाओं की जानकारी हमें प्रायः अपने आसपास यदाकदा मिलती ही रहती है।
         मनीषियों का कथन है कि जन्म के कुछ समय तक जीव को अपना पिछला जन्म याद रहता है। जब जीव अपना होश सम्हालता है और नए जन्म में रचने-बसने लगता है तो पुराने जन्म को भूलने लगता है। परन्तु कुछ जीव ऐसे होते हैं कि जिन्हें बड़े होने तक भी अपना बीता जन्म याद रहता है। वे अपने इस जन्म के परिजनों को पिछले जन्म के घर-परिवार, साथियों व स्थान के विषय में बताते हैं। उनकी जाँच-परख करने पर उनकी सच्चाई का ज्ञान हो जाता है।
          टीवी, समाचार पत्रों और सोशल मीडिया पर ऐसी खबरों को हम पढ़ते और सुनते रहते हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने इस विषय पर लेख, सत्य घटनाएँ / कथाएँ या कहानियाँ प्रकाशित की हैं। हमारे देश में ही नहीं विदेशों में भी ऐसी घटनाएँ घटित होती रहती हैं। कई टीवी सीरियलों में भी इस विषय को कथानक बनाया जाता रहा है।
         हमारी भारतीय संस्कृति के दो आधार स्तम्भ हैं- कर्म सिद्धान्त और पुनर्जन्म। दोनों ही अन्योन्य आश्रित हैं। कर्म तो मनुष्य को करना ही पड़ता है, उसके बिना वह रह नहीं सकता। वह चाहे सुकर्म करे या कुकर्म, कुछ तो करता ही रहता है। वह निठल्ला नहीं बैठ सकता।
        अपने इन्हीं शुभाशुभ कर्मो के ही अनुसार जीव का पुनर्जन्म चौरासी लाख योनियों में से किसी भी योनि में हो सकता है। मनीषी इन सब योनियों में मानव जीवन को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। मानव योनि में जीव कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है, इसलिए इसे कर्मयोनि कहते हैं जबकि अन्य सभी केवल भोग योनियाँ कहलातीं हैं। उनमें जीव को कर्म करने की स्वतन्त्रता नहीं है।
         उपनिषदों का सार कही जाने वाली 'श्रीमद्भगवद्गीता' में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट शब्दों में इस पुनर्जन्म पर प्रकाश डाला है। वे कहते कि हमारे शरीर में जो आत्मा विद्यमान है वह बार-बार जन्म लेती है। सृष्टि के आदि से अब तक वह अगणित जन्म ले चुकी है। न जाने कितने रूपों में वह इस धरा पर उसका जन्म हो चुका है। वह उसी प्रकार अपना शरीर परिवर्तित करती है जैसे मनुष्य अपने वस्त्र बदलता है।
         रीतिकाल के सुप्रसिद्ध कवि रसखान जो भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे, उन्होंने इस विषय में अपनी आस्था प्रकट करते हुए लिखा था-
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं गोकुल गाँव के ग्वालन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मझारन।।
पाहन हो तो वही गिरि  को जो धारयो कर छत्र पुरन्धर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौ मिल कालिन्दी-कूल-कदम्ब की डारन।।
अर्थात इस पद में रसखान जी कहते हैं कि यदि उन्हें अगला जन्म मिले तो उन्हें गोकुल का ग्वाला बनाना जो भगवान श्रीकृष्ण के मित्र थे। कर्मानुसार यदि पशु का जन्म मिलना हो तो नन्द बाबा की गाय बनाना जिसे प्रभु स्वयं चराते थे। यदि निर्जीव बनाना हो तो उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनाना जिसे भगवान ने छत्र की तरह धारण किया था। अन्त में कहते हैं कि पक्षी बनाना हो तो यमुना जी के किनारे उस कदम्ब वृक्ष पर मेरा बसेरा रखना जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीलाएँ किया करते थे।
         इससे अधिक पुनर्जन्म के और कोई उदाहरण नहीं हो सकते। हो सकता है कुछ धर्म अथवा लोग इस सिद्धांत को न मानते हुए इसका उपहास कर सकते हैं परन्तु वे भारतीय सस्कृति और सभ्यता में गहरे पैठे इसके अस्तित्व को नकार नहीं सकते।
         पुनः मानव योनि प्राप्त करने के लिए उसी के अनुरूप अपने किए जाने वाले कर्मों की शुचिता और शुभता पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है।
चन्द्र प्रभा सूद
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