मंगलवार, 6 सितंबर 2016

नश्वर शरीर और कर्म

मानव देह की नश्वरता के विषय में कोई सन्देह नहीं है। यह शरीर जीव को अपने पूर्वकृत कर्मो के अनुसार कुछ निश्चित समयावधि के लिए मिला है। जब भी यह समय सीमा समाप्त हो जाती है तो उसे इस भौतिक शरीर को त्यागना पड़ता है। इसके लिए उसकी राय का कोई मूल्य नहीं होता। वह चाहे अथवा न चाहे, कितना रोना-धोना कर ले, मिन्नतें कर ले उसे एक क्षण की भी मोहलत नहीं मिलती।
         वेद, उपनिषद् आदि महान ग्रन्थ हमें बार-बार चेतावनी देते हुए कहते हैं कि हे मानव, इस नश्वर देह का मोह बिल्कुल मत करो, यथाशीघ्र शुभकर्मो की ओर प्रवृत्त हो जाओ। यजुर्वेद का निम्न मन्त्र उद् घोष करता है-
         वायुरनिलममृतमवेदं    भस्मान्तँ     शरीरम्।
         ऊँ ऋतो स्मर कृतँ स्मर ऋतो स्मर कृतं स्मर।
अर्थात प्राणवायु शरीर मे रहता है, वह मृत्यु के समय विश्व के प्राण में लीन हो जाता है। यह शरीर तभी तक है, जब तक भस्म नहीं हो जाता। हे मनुष्य! सत्कर्म को स्मरण कर, जो कर्म अब तक कर चुका है उन्हें भी स्मरण कर।
        यह मन्त्र हमें स्पष्ट आदेश देता है कि यह शरीर नश्वर है। अपने भूतकाल में किए गए या जो कर्म वर्तमान में कर रहे हैं अथवा जो कर्म भविष्य में करने वाले हैं, उन सब कर्मों की ओर ध्यान देना चाहिए।
       यदि मनुष्य तन पाकर जीव शुभकर्म नहीं करता तो निश्चित ही उसे आगामी जन्मों में मनुष्येतर योनियों में जन्म लेना पड़ता है। वे सभी केवल भोग योनियाँ ही कहलाती हैं जहाँ जीव मात्र अपने किए गए दुष्कर्मो का भोग करके उनसे मुक्त होता है। उसे कर्म करने की बुद्धि ईश्वर नहीं देता। वहाँ उसे अपने कर्मो के अधीन रहने की विवशता होती है।
          भगवान श्रीकृष्ण 'श्रीमद्भगवद्गीता' में शरीर के नाशवान होने और कर्म करने पर बल देते हैं। उनका कथन है कि सृष्टि के आदि से लेकर आजतक जीव ने विभिन्न रूपों में अनेक जन्म लिए हैं। आत्मा अपने पुराने, रोगी और कटे-फटे शरीर ऐसे बदलती है जैसे हम लोग फटे-पुराने या बदरंग हुए वस्त्रों को फैंककर नए कपड़े पहनते हैं। सरल शब्दों में कहें तो शरीर परिवर्तन आत्मा का स्वभाव है। यही भाव निम्न श्लोक में है-
            जीर्णानि वासांसि यथा विहाय
            नवानि   गृह्णाति   नरोपराणि।
            तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
            न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
कहने का तात्पर्य है कि मृत्यु अथवा आत्मा का शरीर परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है जिससे गुजरते समय इस आत्मा को जरा भी दुख नहीं होता। वह तो परम पिता परमात्मा का एक अंश मात्र है, इसलिए आत्मा को उससे मिलने की इच्छा बलवती होती रहती है।
        श्रीकृष्ण ने गीता में निष्काम कर्म पर बल दिया है। वे कहते हैं-
               कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
               मा कर्मफलहेतुर्मा ते संगोSस्त्वकर्मणि।।
अर्थात कर्म करो पर कर्तापन का भाव न रखो। यदि मनुष्य स्वयं को कर्ता मानने लगता है तो उसका अहंभाव प्रबल होने लगता है जो उसके पतन का निमित्त बनता है। कर्म करके उसे ईश्वर को समर्पित कर देने से मनुष्य निरहंकार हो जाता है। तब उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है।
          भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि उन्हें वही भक्त प्रिय है जो अपने कर्ता होने के मिथ्याभिमान को त्याग करके उनकी यानी ईश्वर की शरण में आ जाता है।
        इस संसार में हर जीव और पदार्थ विनाशी या नश्वर है, केवल एक ईश्वर ही है जो अविनाशी है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसी ईश्वर रूपी धुरी के इर्दगिर्द चक्कर लगाता रहता हैं।
        इसी कारण हर जीव का यह भौतिक शरीर भस्म होने वाला है। मानव चोला प्राप्त करके यदि मनुष्य सकाम कर्म करता है तो वह उसकी भौतिक उन्नति होती है।। इसके विपरीत निष्काम कर्म करता हुआ वह आध्यात्मिक उन्नति करके मालिक का कृपा पात्र बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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