बुधवार, 7 सितंबर 2016

सुखमय वृद्धावस्था

वृद्धावस्था में सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए हर व्यक्ति को बहुत ही सावधानी बरतनी चाहिए। यद्यपि इस अवस्था में हर मनुष्य शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो जाता है। शारीरिक अस्वस्थता के कारण वह किसी प्रकार का कठोर परिश्रम नहीं कर पाता। चलने-फिरने और काम-काज करने उसे में असुविधा होने लगती है। इस समय उसे अपनों के सहारे की बहुत आवश्यकता होती है।
           वृद्धावस्था  में व्यक्ति को स्वतंत्रता की भी आवश्यकता होती है। वह पूर्ववत खाना-पीना, सोना-जागना, उठना-बैठना, घूमना-फिरना आदि अपनी इच्छानुसार करना चाहता है। जीवन के इस पड़ाव में ये सुविधाएँ मिल जाएँ तो उनका जीवन सुखद हो सकता है। इस अवस्था में कुछ लोगो में खाने-पीने की ललक बढ़ जाती हैं। उसे अपनी इच्छा से जीवन यापन की सुविधा मिलना बहुत जरूरी है।
          इस आयु में व्यक्ति बहुत संवेदनशील हो जाता है। उसे सभी अपनों से सहानुभूति पूर्वक व्यवहार की अपेक्षा होती है। यदि ऐसे हालात में अपने बच्चे उपेक्षा करने लगें तो बुजुर्ग व्यक्ति टूटने लगता है। उसे यही लगता है कि जिन बच्चों के लिए उसने अपना सारा सुख-आराम छोड़कर उनकी जिन्दगी बनाई, वही विमुख हो रहे हैं। यह बात उसे पच नहीं पाती और वह निराश होने लगता है।
        अपनी वृद्धावस्था का समय बिना कष्ट के सुविधा पूर्वक व्यतीत हो, उसके लिए सबसे पहले अपने आप को मानसिक रूप से मजबूत बनाना होगा। सबसे पहले अपने बच्चों पर निर्भर रहने का विचार त्याग देना चाहिए। यदि बच्चे अपना कर्तव्य समझकर वृद्धावस्था में माता-पिता की सेवा करें तो बहुत अच्छा है अन्यथा उनसे किसी प्रकार की कोई आशा नहीं रखनी चाहिए। समय के साथ-साथ उनकी प्राथमिकताएँ भी बदल जाती है।
         अपने व्यवहार को यथासम्भव सन्तुलित रखने का प्रयास करना चाहिए। कभी यह विचार मन में नहीं रखना चाहिए कि अपनी वृद्धावस्था को आधार बनाकर किसी से सेवा करवा ली जाए अथवा सम्मान प्राप्त कर लिया जाए। यदि किसी सेवक से अपने कार्य करवाएँ तो उसे पूरा पारिश्रमिक देना चाहिए ताकि दोबारा उसे कोई काम कहा जाए तो वे कभी आनाकानी न करे।
         बड़ों को चाहिए कि वे अपने बच्चों के जीवन में दखलअंदाजी न करें। इस बात का सदा ध्यान रखना चाहिए कि उन्होंने ने अपना जीवन जब अपनी इच्छा व शर्तो पर जिया है तो बच्चों को भी उनका जीवन अपने तरीके से जीने देना चाहिए।
        अपने बच्चों की तुलना दूसरे बच्चों के साथ नहीं करनी चाहिए और अपने बच्चों, बन्धु-बान्धवों किसी से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। ऐसा करने से निराशा हाथ लगती है और मन उदास होने लगता है। सबसे वितृष्णा होने लगती है जो मनुष्य को नकारात्मक बनाती है।
        यदि बच्चे साथ न रहना चाहें तो उन पर दबाव नहीं डालना चाहिए और न ही उन्हें मला-बुरा कहकर अपने मन को व्यथित करना चाहिए। यत्न यही करना चाहिए कि अपनी स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए, अपने उसी घर मे रहा जाए जहाँ जीवनभर की यादें जुड़ी हुई हों। वहाँ जीवन सुविधा से जिया जा सकता है।
         इस आयु में उन लोगों को अपना मित्र बनाना चाहिए जो उनकी मनोस्थिति को भली-भाँति समझते हों तथा उनके जीवन के कठिन पलों में सहयोगी बन सकें। सब लोगों की बातें सुन लेने में कोई हर्ज नहीं है। पर निर्णय सदा अपने विवेक को ही आधार बनाकर लेना चाहिए।
     अपने जीवन में थककर कभी हारना नहीं चाहिए। अकेले रहते हुए स्वयं ही सदा अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। समय-समय पर डाक्टर के पास जाकर स्वास्थ्य सम्बन्धी परामर्श लेते रहना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो चिकित्सीय परीक्षण भी करवाते रहना चाहिए। जहाँ तक हो सके पौष्टिक भोजन खाना चाहिए और हर सम्भव प्रयास करना चाहिए कि अपने काम अपने हाथों से करने चाहिए, किसी पर भी निर्भर नहीं रहना चाहिए।
        यह हमेशा याद रखना चाहिए कि अपनी जिजीविषा को बनाए रखें ताकि जीवन में उत्साह बना रहे। निराशा को किसी भी कारण से अपने मन में स्थान नहीं देना चाहिए। किसी के भी समक्ष अपनी असहायता का रोना रोकर सम्बन्धों की भीख नहीं माँगनी चाहिए।
      सबसे अहं बात यह है कि बच्चों को अपना व्यापार, अपनी धन-सम्पति अवश्य सौंपिए परन्तु अपने पास इतना बैंक बेलेंस और भौतिक संपत्ति रख लेनी चाहिए जिससे अपनी वृद्धावस्था का समय अपने साथी के साथ सुविधा पूर्वक व्यतीत हो सके। किसी के भी समक्ष अपनी जरूरतों को पूरा करने हेतु पैसे के लिए हाथ न पसारना पड़े।
        अपने समय का सदुपयोग सामाजिक कार्यो, ईश्वर भजन, स्वाध्याय, योग आदि में करना चाहिए। उस जगज्जननी माता यानी ईश्वर से अपने कुशल-क्षेम के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। वही रक्षक है और हर कदम पर सहयता करने वाला है।
चन्द्र प्रभा सूद
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