शुक्रवार, 13 जनवरी 2017

'द' का अर्थ

उपनिषद की कथा है कि एक बार देवता, असुर व मनुष्य प्रजापति के पास गए और उनसे उपदेश देने के लिए कहा। उन्होंने उन्हें केवल 'द' शब्द का उपदेश दिया। तीनों ने उस शब्द का अर्थ अपनी बुद्धि के अनुसार लगाया।
       देवताओं ने 'द' शब्द से संयम अर्थ लिया। असुरों ने इस 'द' शब्द से अर्थ समझा दया। मनुष्यों ने 'द' शब्द का अर्थ निकाला दान।
       एक ही शब्द के अलग-अलग अर्थ यह बताते हैं कि अपनी-अपनी योग्यता व बौद्धिक क्षमता के अनुसार ही अर्थ ग्रहण करता है।
        यह एक प्रतीकात्मक कथा है। दैवी, आसुरी व मानवी ये सभी शक्तियाँ हमारे अपने अंतस में विद्यमान हैं। इन शक्तियों में कभी किसी का पलड़ा भारी होता है तो कभी किसी का। जो गुण हावी होता हैं तदनुसार मनुष्य वर्ताव करता है।
       दैवी गुण जब मनुष्य में प्रधान होते हैं तब वह देवता तुल्य हो जाता है। उसे अपने कदम फूँक-फूँक कर रखने पड़ते हैं। ऐसे दैवी गुणों वाला व्यक्ति समाज का दिग्दर्शक होता है। अपनी आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ समाज के निर्माण का कार्य भी वह करता है।
       ये लोग परोपकारी व अपना सर्वस्व दूसरों के लिए न्योछावर करने वाले होते हैं। दुखियों व पीड़ितों के लिए छायादार वृक्ष के समान होते हैं जहाँ जाकर उन्हें मानसिक शांति मिलती है।
       अब प्रश्न उठता है कि देवतुल्य व्यक्ति को संयम का उपदेश क्यों? इसका सीधा-अर्थ है कि संसार में आकर्षण इतने अधिक हैं कि उसे अपने चरित्र की रक्षा करनी पड़ती है। नहीं तो वह भी समय की धारा में बहता हुआ तथाकथित सद्पुरुषों की भाँति दूसरों के धन का हरण करने वाला, धोखेबाज, भ्रष्टाचारी, कालाबाजारी करने वाला, हेराफेरी करने वाला बन जाएगा। पर ऐसा करने पर ये फिर समाज में कलंक की तरह हो जाएँगे।
        उनका देवत्व तो नहीं बच सकेगा। इसलिए अपने जीवन को संयमित बनाना ही उनके लिए आवश्यक हो जाता है। तभी उनके लिए द(दमन) उपदेश की सार्थकता होती है।
       असुर यानि आसुरी विचार हमारे मन में विद्यमान रहते हैं। वे सदा शार्टकट का सहारा लेना चाहते हैं। हड़बड़ाहट में उल्टे- सीधे कार्य करते हैं। प्रायः समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहना पसंद करते हैं। स्वेच्छाचारी उनको न अपनों का डर होता है न समाज का। वे दूसरों को कष्ट देकर आत्मतुष्टि प्राप्त करते हैं। दूसरों की आँख की किरकिरी ये लोग घर-परिवार, देश व समाज के शत्रु होते हैं। न इनकी दोस्ती अच्छी होती है न दुश्मनी। जहाँ तक हो सके इनसे किनारा करना ही श्रेयस्कर होता है। इनके लिए द(दया) का उपदेश बिल्कुल जरूरी है।
       तीसरे नंबर पर हैं मनुष्य यानि कि मानुषी प्रवृत्ति। मनुष्य के स्वाभाविक गुण हैं- दया, ममता, सौहार्द आदि। मानवोचित गुण होने से ही समाज में भाईचारा बना रहता है। सामाजिक, धार्मिक, घर-परिवार व देश व समाज के सभी कार्य सुचारू रूप से चलते रहें इसके लिए हर कदम पर धन की आवश्यकता होती है। तभी मनुष्यों को द(दान) करने का उपदेश दिया।
        यह सांकेतिक कथा अपने में इतनी गहराई छुपाए हुए है। हम तो इसे कथा की तरह पढ़-सुनकर आनन्द लेते हैं। परन्तु यह हमारे गहन भावों को झकझोर देती है। हमें मनन करने के लिए विवश करती है कि हम देवतुल्य बनकर अमर होना चाहते हैं अथवा असुर बनकर मुँह छिपाते रहना चाहते है या मनुष्य बनकर जीवन व्यतीत करना चाहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें