रविवार, 22 जनवरी 2017

माँ के चरणों में स्वर्ग

माता के चरणों में सभी स्वर्गिक सुख मिलते हैं। दूसरे शब्दों में माँ का मूल्य स्वर्ग के सुखों से कहीं बढ़कर है। शास्त्रों और मनीषियों ने ऐसा सोच-समझकर ही कहा होगा।
        हर धर्म स्वर्ग की कल्पना करता है। ऐसा माना जाता है कि उन सुखों को पाने के लिए मनुष्य को कठोर तपस्या करनी पड़ती है। तभी मरणोपरान्त उसे स्वर्ग में जाने का अवसर मिलता है। वहाँ जाकर वह सभी प्रकार के सुखों का भोग करता है। अन्यथा नरक में जाकर उसे भयंकर दुखों और कष्टों को सहन करना पड़ता है।
        ईश्वर ने माँ को अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजा है। जिसकी गोद का सुख लेने के लिए देवता भी आतुर रहते हैं। फिर हम मनुष्यों की क्या बात करनी? हमें मनुष्यों को तो मालिक ने यह सुख भरपूर दिया है। जो सुख, सुरक्षा और शान्ति बच्चे को माँ की गोद में मिलती है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलती। इसीलिए हर बच्चा माँ की गोद में आने के लिए हर समय मचलता रहता है।
        रामायण में एक प्रसंग आता है कि रावण का वध करने के उपरान्त स्वर्णमयी लंका का राज्य भगवान श्रीराम ने उसके छोटे भाई विभीषण को सौंप दिया। उस समय लक्ष्मण को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था-
         अपि स्वर्णमयी लंका न मे रोचते लक्ष्मण।
         जननी  जन्मभूमिश्च  स्वर्गादपि  गरीयसी।।
अर्थात हे लक्ष्मण! मुझे स्वर्णमयी लंका भी पसन्द नहीं आती। उसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि जननी या माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।
       इस श्लोक का यही अर्थ है कि माँ के चरणों में ही दुनिया के सारे ऐश्वर्य है। जो बच्चा अपनी माँ की आजन्म सेवा करता है, उसे दुनिया में सब कुछ मिलता है। आप पूछेंगे- कैसे?
         इसके उत्तर में मैं केवल यही कहना चाहती हूँ कि जिस मनुष्य की माँ उससे सदा प्रसन्न व सन्तुष्ट रहती है, उसे माता अपने आशीर्वादों की दौलत से मालामाल करती है। ऐसी मान्यता है कि आशीर्वाद फलदायी होते हैं। ऐसे बच्चों का यश दूर-दूर तक फैलता है। घर-परिवार और समाज में सर्वत्र लोग उसे सम्मान की नजर से देखते हैं। समाज में सभी लोग उसके उदाहरण देते हैं। ऐसे लोगों का साथ देने वाले लोग बढ़ते रहते हैं। यानी उसका बाहूबल बढ़ता है।
        जिसने माँ को भगवान मानकर उसकी पूजा-अर्चना की, उसे मन्दिर में जाकर माथा रगड़ने की आवश्यकता नहीं रह जाती। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि माँ के प्रति अपने दायित्वों का बखूबी निर्वहण करना चाहिए। उसके खानपान का ध्यान रखना चाहिए, अस्वस्थ होने पर इलाज करवाना चाहिए। वृद्धावस्था में उसकी छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करना चाहिए।
         घर में बैठी हुई वह उसकी चौकसी करती है। जब तक वह घर में विद्यमान रहती है तब तक घर में ताला लगाने की कोई आवश्यकता नहीं होती। बेटा-बहू अपने कार्यालय जाते हैं तो उन्हें माँ के रहते बच्चों की चिन्ता नहीं रहती। कभी घूमने-फिरने भी जाते हैं तो बच्चों को घर छोड़कर जा सकते हैं।
         पिता एक बार शराब आदि का नशा करके या जुआ आदि खेलकर मस्त रह सकता है पर माता बच्चे के हर सपने को पूरा करने का यत्न करती है। उसकी हर मोड़ पर सहायक बनती है। पिता अकेले सन्तान को नहीं पाल सकती परन्तु माता उसका पोषण करती है। वह माँ के साथ-साथ वह पिता के भी सारे दायित्वों को पूर्ण करती है।
        दादी के बनकर अपने पोते-पोतियों को कहानियों के माध्यम से संस्कारित करने का कार्य करती है। माँ जीवन के हर पड़ाव पर अपने दायित्वों को बखूबी निभाती है।
        इसीलिए माँ का स्थान बहुत उच्च होता है। उसे देवता कहकर मान दिया जाता है। जैसे परमपिता परमेश्वर के पास जाकर मनुष्य को मुक्ति मिलती है, उसी प्रकार माँ के पास जाकर अपने कष्टो को भूल जाता है। तभी माँ के चरणों में स्वर्गं माना जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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