रविवार, 8 जनवरी 2017

माँ बच्चों को संस्कारित करे

हर माँ की हार्दिक इच्छा होती है कि उसकी सन्तान आज्ञाकारी हो। हर मिलने-जुलने वाला मन से उसकी सराहना करे। अपने बच्चों की प्रशंसा सुनकर उसका हृदय बाग-बाग हो जाता है। वह स्वयं को इस दुनिया की सबसे अधिक भाग्यशाली माँ समझती है।  
        सन्तान सर्वत्र प्रशंसा का पात्र बने इसके लिए माँ का दायित्व है कि वह अपनी सन्तान को संस्कारित करे। जितने अच्छे संस्कार बच्चे में होंगे उतना ही उसका यश चारों ओर फैलेगा।
         सन्तान को संस्कार देने का काम माता से बढ़कर और कोई भी नहीं कर सकता। संस्कार से रहित मनुष्य पशु के समान होता है। उसे बहुत ही धैर्यपूर्वक संस्कारित करने की आवश्यकता होती है। वह धैर्य माता के पास होता है।
         शास्त्रों का कथन है कि संस्कारों के कारण ही बच्चा आगे बढ़ता हुआ अपने जीवन में सफल होता है। निम्न श्लोकांश देखिए-
जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते
अर्थात जन्म से हर बच्चा संस्कारहीन होता है परन्तु संस्कार के बाद ही वह ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य बनता है। यानी जैसे संस्कार उस बच्चे में होंगे उसी के अनुसार बड़ा होकर वह अपने व्यवसाय का चयन करता है।
         माता से संस्कार मिलते हैं तो मनुष्य के बिना बताए ही उसके आचार-व्यवहार में उसके संस्कार झलकते हैं। बड़ों के प्रति उसका विनम्र आचरण और अपने से छोटों के प्रति सहृदयतापूर्ण व्यवहार से ज्ञात हो जाता है कि मनुष्य कितने पानी में है। सस्कारी मनुष्य कभी भी किसी के साथ दुर्व्यवहार करने की सोच ही नहीं सकता। यदि कभी किसी कारण से उससे गलती हो जाए तो क्षमा याचना करने में उसे गुरेज नहीं होता।
        संस्कारवान बच्चों के माता-पिता, घर-परिवार व बन्धु-बान्धवों को उन पर बहुत गर्व होता है। इन बच्चों से हर व्यक्ति अपना सम्बन्ध बढ़ाना चाहता है। घर-बाहर, स्कूल, मित्रों-सम्बन्धियों में हर स्थान पर ही इनके संस्कारों के कारण उदाहरण दिए जाते हैं।
          कार्यक्षेत्र में इन लोगों का दूसरों के प्रति सद्वयवहार आदर्श स्थापित करता है। दूसरों के साथ मिल-जुलकर रहते हैं। इसी प्रकार अपने आस-पड़ोस में अपनी अच्छाई के कारण सराहना पाते हैं।
          इन बच्चों के होते हुए उनके माता-पिता को वृद्धावस्था में भी किसी प्रकार की परेशानी नहीं होती। वे उस अवस्था में उन्हें निराश्रित नहीं छोड़ते बल्कि उनकी सुख-सुविधाओं का पूरी तरह से ध्यान रखते हैं। उनके खान-पान में कोताही नहीं बरतते। उनके अस्वस्थ होने पर वे लापरवाह नहीं हो जाते अपितु अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनक्स उपचार करवाते हैं।
         इसके विपरीत जिन बच्चों को माता किसी कारणवश सुसंस्कारित नहीं कर पाती वे बच्चे जिदी, घमण्डी और नकचढ़े बन जाते हैं। उनमें स्वार्थ की भावना प्रबल होती है। वे किसी अपने बराबर नहीं समझते। अपने आस-पड़ोस या विद्यालय में सर्वत्र हर किसी से झगड़ा करते रहते हैं। तब माता-पिता उनकी नित्य प्रति मिलने वाली शिकायतों से परेशान रहते हैं।
         बड़े होकर भी इनके व्यवहार में जब कोई परिवर्तन नहीं आता तब उन्हें इसका परिणाम भुगतना पड़ जाता है। अपने अहं में अन्धे होकर की बच्चे गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं, जहाँ से वापसी करना सम्भव नहीं हो पाता। तब किसी का प्रायश्चित भी उनका जीवन सरल और सुखमय नहीं बना सकता।
        इन लोगों की माताओं को भी समाज में अपमानित होना पड़ता है। यही बच्चे बड़े होकर माता-पिता के प्रति दायित्वों को पूर्ण नहीं करते और आलोचना का शिकार बनते हैं।
        बच्चों को जितने संस्कार माता देगी, वे उतने ही महान बनते हैं। किसी भी महापुरुष के जीवन का अध्ययन करने पर यह बात सिद्ध की जा सकती है। बच्चे देश और समाज की धरोहर हैं और भावी राष्ट्र निर्माता हैं। जिस प्रकार के संस्कार इनमे होंगे वैसा ही राष्ट्र बनेगा। इसलिए हर माता का यह दायित्व है कि वह अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दे।
चन्द्र प्रभा सूद
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