गुरुवार, 19 जनवरी 2017

सात पतन के कारण

अपने जीवन में सदा सुख की कामना करने वाला इन्सान यदि इन सातों के फेर में फँस जाए तो उसके लिए जीना दुश्वार हो जाता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या और स्वार्थ- ये सातों मनुष्य के पतन के कारक हैं।
     हमारे अंत:करण में विराजमान शत्रुओं में काम प्रमुख शत्रु है। इससे मित्रता करने वाले को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। एक सीमा तक ही हमें इसका उपभोग करना चाहिए।
      काम के वशीभूत होकर अपनी इस इन्द्रिय का दुरुपयोग करते हैं वे अगले जन्म में नपुंसक बनकर जन्म लेते हैं और समाज में हमेशा तिरस्कृत होते हैं। हमेशा ही वे अपने प्रारब्ध को कोसते रहते हैं। ऐसी ही सजा कुछ लोगों ने पिछले दिनों बलाकारी को देने की माँग की थी।        
       क्रोध सभी बुराइयों की जड़ है। संसार में बंधन कारण है, धर्म का नाश करने वाला बहुत बड़ा शत्रु है। यह विवेक यानी हमारी सोचने-समझने की शक्ति को नष्ट करता है। कहते हैं कि क्रोध में इंसान पागल हो जाता है। ऐसे क्रोधी को कोई भी पसंद नहीं करता। सभी उससे किनारा करने में ही अपनी भलाई मानते हैं।
        महर्षि परशुराम इतने विद्वान व शक्तिशाली थे परंतु फिर भी उन्हें समाज में यथोचित स्थान नहीं मिला।जितना अधिक इस शत्रु को गले लगाएँगे उतना ही घर, परिवार, मित्रों व समाज से कटते जाएँगे।
       लालच के कारण चोरी-डकैती, लूटमार, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, दूसरे का गला काटना, कालाबाजारी, टैक्सचोरी जैसे अपराध करने लगता हैं। लालच की रेस में दौड़ते हुए अपने प्रियजनों से मनुष्य कब विमुख हो जाता है उसे पता नहीं चलता। जब वह चेतता है तो स्वयं को अकेला पाता है। जब उसे अपनों के सहारे की आवश्यकता होती है वह उन्हें खो चुका होता है, तब वह पछताता है और स्वयं को धिक्कारता है।
       मोह मनुष्य को अन्धा बना देता है। इस कारण वह जायज-नाजायज काम कर बैठता है। कैकेयी का राम को वन में भेजना, भरत के लिए राज्य माँगना और राजा दशरथ की मृत्यु इसी के परिणाम हैं। इसी तरह धृतराष्ट्र ने अपने स्वर्गवासी भाई की सन्तानों का हक छीन लिया।
       मनुष्य अपने अहंकार में इतना चूर हो जाता है कि बाकी सारी दुनिया को अपने ठेंगे पर रख लेने का दम भरता है। उसकी सोच केवल मैं तक सीमित हो जाती है।उसे अपने बराबर अन्य कोई बुद्धिमान दिखाई ही नहीं देता। अपने अहम के कारण वह मनुष्य हर किसी को देख लेने का दम भरता है और दुनिया को आग लगा देने की गुस्ताखी करता है। हर कोई उसे कीड़े-मकौड़ों की तरह लगता हैं जिसे वह चुटकी बजाते ही मसलने की बात करता है।
        मनुष्य सुन्दरता, यौवन, विद्या, धन, शक्ति आदि पर घमंड करता है। ये सब समय बीतते नष्ट हो जाते हैं। रावण, कंस, दुर्योधन और हिरण्यकश्यप जैसे बली अहंकारी काल के गाल में समा गए।
        ईर्ष्या मनुष्य को जलाकर राख कर देती है। किसी भी क्षेत्र में अपने से आगे बढ़ने वालों को वह सहन नहीं कर सकता। उन्हें पटखनी देने के लिए षडयन्त्र रचता रहता है। कभी-कभी स्वयं भी उसका शिकार हो जाता है। दूसरों की उन्नति में खुश न होकर वह ईर्ष्या की अग्नि में जलता हुआ अपनी ही हानि कर बैठता है।
         स्वार्थ भी मनुष्य को कभी चैन से जीने नहीं देता। संसार की सारी नेमते सिर्फ उसकी प्रापर्टी बनकर रहें, यह विचार उस पर भारी पड़ जाते हैं। केवल मैं और मेरे परिवार वाली संकीर्ण मनोवृत्ति उसके सोच के दायरे को सीमित कर देती है। इसका दुष्परिणाम से उसे कोई नहीं बचा सकता।
        हमारी भारतीय संस्कृति हमें जो जीवन मूल्य अपनाने का विमर्श देती है, वे शायद ही अन्यत्र कहीं उपलब्ध हों। इन सबकी अनुपालना करके मनुष्य में दैवीगुण आते हैं व वह समाज में अपना अनुकरणीय स्थान बनाते हैं।
       ईश्वर ने मनुष्य को संसार में सर्वश्रेष्ठ जीव बनाकर भेजा है। इसे विवेक शक्ति का उपहार दिया है ताकि वह सोच-समझकर जीवन में आगे बढ़े। पतन के कारण पाँचों महाशत्रुओं, ईर्ष्या और स्वार्थ को अपने वश में करके मनुष्य इहलोक और परलोक संवार सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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