गुरुवार, 15 मार्च 2018

मन को शान्त रखना

मन उस समय मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र होता है जब वह शान्त होता है या उसे उचित राह दिखाता है। अपने अनुकूल बनाने के लिए इसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा साधा जा सकता है। यह मनुष्य को मोक्ष तक ले जाने की सीढ़ी है। इसीलिए इसे मनुष्य के शरीर रूपी रथ की लगाम कहा गया है। जब तक यह मनुष्य के नियन्त्रण में रहता है तब तक उसे सफलता मिलती है। उस समय वह समाज में एक सफल मनुष्य कहलाता है।
          इसके विपरीत जब यह मन उद्विग्न हो जाता है या कुमार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करता है तब वह शत्रु से बढ़कर होता है। उसे सुविधा भोगी होना अधिक रुचिकर लगता है। इसलिए वह प्रायः शॉर्टकट की ओर अग्रसर होना चाहता है। आराम करना चाहता है। इस मन के कहे अनुसार चलने से मनुष्य का कभी भला नहीं हो सकता। मनुष्य मनचाही सफलता प्राप्त नहीं कर पाता। न ही समाज में अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना पाता है।
         मन को शान्त रखने के लिए हमें कुछ सरल-सी बातों को ध्यान में रखना चाहिए। सबसे पहले इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि चाहे कोई पहचाने या नहीं, बिल्कुल परेशान नहीं होना चाहिए। पहचान पाने की लालसा वास्तव में दुखों का कारण होती है। मनुष्य को चाहिए कि वह अपना कार्य सच्ची लगन, मेहनत और ईमानदारी से करता रहे। उसी से उसकी पहचान बनती है। निस्संदेह समय आने पर स्वयं ही लोग उसके कार्यों की प्रशंसा करने लगते हैं।
         मन जब अवसादग्रस्त हो जाता है तब मनुष्य मनोरोगी बन जाता है। उस अवसाद की स्थिति से बाहर निकलने के लिए उस व्यक्ति में जिजीविषा होनी चाहिए। उसे अपने कमरे में अकेले नहीं बैठना चाहिए। और न ही अपने प्रति दूसरों के व्यवहार को सोचते हुए व्यथित रहना चाहिए। दूसरों के साथ से, अच्छी पुस्तकें पढ़ने से और ईश्वर के प्रति विश्वास रखने से मनुष्य अपने अवसाद से बाहर निकल सकता है।
        अपने मन की शान्ति के लिए क्षमा रूपी अस्त्र का सहारा लेना चाहिए। अपने प्रति जाने-अनजाने किए गए दोष के लिए दूसरों को क्षमा कर देना चाहिए। उसके लिए कुछ बातों को भूलना पड़ता है। यानी अपने प्रति किए गए प्रतिकूल व्यवहार को मन से लगाकर नहीं रखना चाहिए। इस तरह पिष्टपेषण करने से मन सदा व्यथित रहता है। अपने मन पर पड़ी इस धूल को साफ करके उसे सदा दर्पण की तरह चमकता हुआ रखना चाहिए।
         किसी के काम में दखलदाजी न करे। उसमें मीनमेख न निकलें। बिन माँगे किसी को परामर्श न दें। जब तक कोई सलाह न माँगे तब तक उसे कुछ न कहें। इससे अपना सम्मान घटता है तथा मन व्यथित होता है। ऐसा व्यक्ति सही होते भी दूसरों की आँख की किरकिरी बन जाता है। ऐसी दुखदायी परिस्थितियों से बचने का यत्न करना चाहिए।
          जाने-अनजाने ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए जिसके लिए बाद में पश्चाताप करना पड़े। जहाँ तक हो सके दूसरों के प्रति ईर्ष्या-द्वेष की भावना से बचना चाहिए। दूसरों की कमियाँ ढूंढकर उन्हें अपमानित करने के स्थान उनकी अच्छाइयों को तलाशना चाहिए। दूसरों के कार्य की यथासम्भव प्रशंसा करनी चाहिए। इस तरह मन में बुराइयों के स्थान पर अच्छाई का वास होता है। अपना मन शुद्ध और पवित्र रहता है।
          अपनी सामर्थ्य का आकलन करना चाहिए। अतः उतना ही काम अपने हाथ में लेना चाहिए जितना करने की अपनी क्षमता हो। कार्य का बोझ जब बढ़ जाता है तब मन बेचैन होने लगता है। उस समय किसी भी कार्य को करने में मन नहीं लगता, वह उचाट होने लगता है। इसलिए काम निपटाने में देरी होने लगती है। यह स्थिति बहुत कष्टदायी बन जाती है।
         यत्नपूर्वक अपने वातावरण में बदलाव लाने का प्रयास करना चाहिए। स्वयं को परिस्थितियों के अनुसार ढालने की कोशिश करनी चाहिए। इस बात को सदा स्मरण रखना चाहिए कि सब व्यवहार हमारी इच्छा के गुलाम नहीं हैं। इसलिए जो किसी भी शर्त पर बदल ही नहीं सकता, उसे सहन कर लेना ही श्रेयस्कर है। अपने मन-मस्तिष्क को कभी खाली नहीं रहने देना चाहिए। उन्हें अपनी रुचि के कार्यों में लगाए रखना चाहिए। प्रतिदिन आत्मविश्लेषण करना चाहिए। सम्भव हो सके तो योगाभ्यास करना चाहिए। मन को नियन्त्रित करने के लिए ध्यान लगाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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