बुधवार, 28 मार्च 2018

स्वाभिमानी व्यक्ति

स्वाभिमानी व्यक्ति का यह स्वभाव होता है कि वह जीवनकाल में अपने स्वाभिमान से कदापि समझौता नहीं करता। उसका मान ही उसका सबसे बड़ा धन होता है। कितनी ही समस्याएँ उसके सम्मुख क्यों न आ जाएँ, वह किसी के सामने अपना हाथ नहीं फैलता। सम्मानपूर्वक जीवन यापन करने के लिए वह कटिबद्ध रहता है। अपने बन्धु-बान्धवों में से कभी किसी को हवा भी नहीं लगने देता कि वह जीवन के किस कठिन दौर से गुजर रहा है।
          उसके पास यदि कुछ खाद्य पदार्थ हैं तो वह उन्हें खा लेता है और यदि दुर्भायवश कुछ न हो तो भूखा ही सो जाता है। हालाँकि यह सब करना असम्भव होता है। उस कठिन समय में वह बस ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उसे कष्ट सहने की शक्ति दे। उस भयावह कष्टकारी समय से उसे बाहर निकलने का मार्ग दिखाए। उस कठिन दौर में वह किसी के द्वारा दिखाए गए आकर्षक दिखने वाले कुमार्ग की ओर अग्रसर नहीं होता।
          निम्न श्लोक स्वाभिमानी व्यक्ति की तुलना जंगल के राजा शेर की तरह कर रहा है। दोनों सिर उठाकर स्वाभिमान से जीते हैं-
      क्षुत्क्षामो‌ऽपि जराकृशो‌ऽपि शिथिलप्राणो‌ऽपि कष्टां दशाम्।
      आपन्नो‌ऽपि विपन्नदीधितिरपि प्राणेषु नश्यत्स्वपि।।
        मत्तेभेन्द्र-विभिन्न-कुम्भ-कवलग्रासैकबद्धस्पृहः।
        किं जीर्णं तृणमत्ति मानमहताम् अग्रेसरः केसरी।।
अर्थात सिंह और स्वाभिमानी व्यक्ति का स्वभाव एक समान होता है। सिंह भले ही भूखा मर जाए पर वह स्वाभिमानी होने कारण कभी भी सूखी घास खाकर अपने प्राणों की रक्षा नही करता है। वह तो मदमस्त हाथी का माँस खाने का ही प्रयास करता है। इसी प्रकार स्वाभिमानी व्यक्ति भी किसी से भीख माँगकर नही खाता। वह सम्मानपूर्वक जीवन यापन करने के लिए कटिबद्ध रहता है।
          यह श्लोक स्वाभिमानी मनुष्य और शेर के स्वभाव की समानता को प्रदर्शित कर रहा है। शेर का उदाहरण देते हुए कवि कह रहे हैं कि वह शिकार न मिल पाने की स्थिति में समझौता नहीं करता, भूखा मरना उसे मंजूर होता है पर घास-फूस खाकर अपना पेट नहीं भरता। उसका प्रयास यही रहता है कि किसी हाथी का शिकार करके वह स्वादिष्ट मांस खा सके यानी हाथी के मांस का भोजन करने की कामना करता है।
           इसी प्रकार स्वाभिमानी व्यक्ति भूखा मार सकता है परन्तु भीख में मिले भोजन से अपनी क्षुधा शान्त नहीं करता। वह अपने बाहुबल पर भरोसा करता है। स्वाभिमान से सिर उठाकर जीने की कामना करता है। यदि मनुष्य के जीवन से स्वाभिमान को निकाल दिया जाए तो उस व्यक्ति को मृतप्रायः कहा जाएगा। उस जीने का क्या लाभ जिसे हर कोई अपने कदमों तले रौंदकर चला जाए।
         मनीषी कहते हैं कि जिस व्यक्ति में स्वाभिमान नहीं वह मृत के समान कहलाता है। दूसरों की चापलूसी करने वाला या तलवे चाटने वाला कभी सिर उठाकर नहीं चल सकता और न ही शेर की तरह दहाड़ सकता है। इसी प्रकार जिस देश के लोगों को अपने देश के प्रति मान नहीं उस देश पर, शत्रु देश कभी भी सरलता से अपना आधिपत्य जमा लेते हैं।
         इन स्वाभिमानी लोगों के लिए कवियों ने कहा है-
          एकमानधनो हि मनस्वीनाम्।
           तथा मानो हि महतां धनम्।
अर्थात मनस्वियों का एकमात्र धन उनका मन होता है। और दूसरी सूक्ति में कहा है कि मान ही महापुरुषों का धन होता है।
         इन सुक्तियाँ का तात्पर्य यही है कि मानी लोग केवल स्वाभिमान को ही अपना धन यानी सर्वस्व मानते हैं। भौतिक धन-वैभव उनके पास हो तो बहुत अच्छी बात है। यदि वह उनके पास नहीं है तो वे उसकी परवाह नहीं करते। उन्हें दुनिया को अपने वैभव का प्रदर्शन नहीं करना होता। अपने स्वाभिमान को बचाए रखने की खातिर किसी के समक्ष अपना सिर न झुकाने वाले, अपने प्राणों की आहुति देने वाले मनस्वियों की गाथाओं से इतिहास भर पड़ा है। बस उसमें गोता लगाने की देर है, उनके चरित्र के विषय में जानकारी मिल सकती है।
         ऐसे स्वाभिमानियों के जीवन से शिक्षा लेकर प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन को सफल बनाने का प्रयास करना चाहिए और समाज के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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