गुरुवार, 29 मार्च 2018

मनुष्य एक यात्री

मनुष्य इस असार संसार में एक मुसाफिर (यात्री) की तरह है। वह यहाँ आता है, रहता है, अपने हिस्से के कार्य निपटाता है और फिर इस संसार से विदा लेकर चल पड़ता है एक नए पड़ाव की यात्रा के लिए। उसकी इन अनन्त यात्राओं का क्रम तब तक जारी रहता है जब वह अपने स्थायी निवास परम धाम मोक्ष को नहीं प्राप्त कर लेता।   
          हम सब लोग यात्राएँ करते रहते हैं। इसलिए सभी भली-भाँति यह बात जानते हैं कि जब कभी हम किसी होटल या रिसार्ट में कुछ दिनों के लिए ठहरते हैं। वह हमारा स्थायी निवास नहीं होता। हम उस स्थान को दो-चार दिन ठहरने के लिए किराए पर ले लेते हैं। जब निश्चित अवधि समाप्त हो जाती है तब उसे खाली करके वापिस अपने घर लौट आते हैं। उस समय हमारे मन में उस स्थान को छोड़ने का कोई दुख नहीं होता। हम खुशी-खुशी उस स्थान को छोड़ कर लौटते हैं।
          इसका तात्पर्य यही हुआ कि उस स्थान विशेष से हमें कोई मोह नहीं होता। हम यही सोचकर जाते हैं कि हमने कितने दिन वहाँ रुकना है। हम घूमते-फिरते हैं और मौज-मस्ती करके आनन्दित होते हुए लौट आते हैं।
         यह संसार भी एक होटल या रिसार्ट की तरह ही है जहाँ हम कुछ समय के लिए आते हैं। वह अवधि हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर हमें देता है। उस अवधि के पूर्ण हो जाने पर इस संसार को छोड़कर जाना होता है। हम इस संसार को अपना घर मान लेते हैं। इसलिए इससे विदा लेना नहीं चाहते। यदि कोई हमें कह दे कि हमारी आयु के कुछ दिन शेष बचे हैं तो सुनकर अच्छा नहीं लगता। हम उसे बुरा-भला कहने में संकोच नहीं करते।
         किसी गीत की पंक्ति मुझे इस विषय पर याद आ रही है-
           'यह दुनिया मुसाफिर खाना सराय
            कोई आ आए कोई चला जा रहा।'
इस दुनिया में आकर हमें अपने कर्मानुसार सांसारिक रिश्ते-नातों का उपहार मिलता है। उनमें हम इतना अधिक खो जाते हैं कि दीन-दुनिया को भुला बैठते हैं। हमारा सारा व्यापार इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता रहता है और हमारे प्राण भी इन्हीं में ही बसते हैं। उन्हीं को लेकर हम अपनी एक दुनिया बना लेते हैं। हमारा जीना-मरना सब उनके लिए होता है। सब पाप-पुण्य और छल-फरेब हम उन्हीं के लिए करते हैं।
          ऋषि-मुनि और विद्वान हमें समय- समय पर सचेत करने का प्रयास करते रहते हैं कि यह मोह-माया मात्र मृगतृष्णा है और कुछ नहीं। जाग जाओ और उस प्रभु में अपना ध्यान लगाओ। पर हम ऐसी नींद सो रहे हैं कि जागना ही नहीं चाहते। इसीलिए किसी ने कहा है-
              उठ जाग मुसाफिर भोर भयी
              अब रैन  कहाँ  जो  सोवत है।
               जो  सोवत  है वह  खोवत  है
               जो  जागत  है सो  पावत  है।।
          ये पंक्तियाँ हमें जगा रही हैं कि अब तो उठ जाओ आलस्य छोड़ो। यह सोने का समय नहीं है। प्रभु की कृपा पाने का यह समय है उसे व्यर्थ न गंवाओ। जब हमारा यह शरीर अशक्त हो जाएगा तब चाहकर भी उस मालिक का ध्यान नहीं कर पाओगे केवल पश्चाताप करते रह जाओगे। इसलिए अभी से सावधान हो जाओ। जो जागता है वही परमेश्वर का कृपापात्र बनता है। जो सचेत नहीं होना चाहता वह इस संसार में बहुत कुछ गंवा देता है उसे जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा नहीं मिलता। वह चौरासी लाख योनियों के फेर में भटकता रहता है।
          सुधीजन जानते हैं कि ईश्वर लगन और भावना चाहता प्रदर्शन नहीं इसलिए सच्चे मन से उसका स्मरण करना चाहिए। तभी भवबंधन से मुक्ति संभव है।
चन्द्र प्रभा सूद
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