मंगलवार, 27 मार्च 2018

जल में कमल की तरह

संसार में मनुष्य को जल में कमल की भाँति रहना चाहिए। इस उक्ति का अर्थ है कि मनुष्य को दुनिया में रहते हुए, अपने सभी दायित्वों को पूर्ण करन्ता चाहिए पर उनमें लिप्त नहीं हो जाना चाहिए। यहाँ उदाहरण जल में कमल का कह सकते हैं। तालाब के जल में कमल का फूल उत्पन्न होता है। वह चारों ओर से जल से घिरा रहता है, किन्तु उस जल में लिप्त नहीं होता। इस संसार सागर में रहने वाले मनुष्य के साथ वास्तविकता के धरातल पर ऐसा हो नहीं पाता। दुनिया के आकर्षणों के बीच में फँसा मनुष्य चक्करघिन्नी बनकर रह जाता है।
          मनुष्य जितना मोह-माया के जाल में उलझता जाता है उतना ही उसमें फँसता जाता है। फिर उस जंजाल से बाहर निकलने के लिए छटपटाता रहता है। वह इस संसार के कार्य-व्यवहार में ही लगा हुआ कोल्हू के बैल की तरह जुटा रहता है। वह भूल जाता है कि इस संसार में उसे सदा के लिए नहीं रहना है। बस निश्चित अवधि के लिए ही उसे यह मानव तन मिला है। समयावधि समाप्त होते ही मृत्यु उससे यह तन छीन लेगी। उस समय चाहे वह कितनी ही गुहार लगा ले, अपनी सारी धन-सम्पत्ति देने का वादा कर ले, पर उस सब के बदले में उसे एक पल की भी मोहलत नहीं मिल सकती।
         इस रहस्य को इस प्रकार समझते हैं। रेत के घर हम सभी ने आपने बाल्यकाल में बनाए हैं। यदि गलती से किसी का पैर उस घर को छू जाता था तो वह बिखर जाता था। तब हम बच्चे झगड़ा किया करते थे, दोस्तों से रूठ जाते थे। फिर वह बदले की भावना से सामने वाले के घर को तहस-नहस कर दिया करते थे। जब घर जाने का समय आता था तो स्वयं ही अपने बनाये घरों को उछलते-कूदते मटियामेट कर देते थे। उस समय किसी को स्मरण नहीं रहता था कि कौन किसका घर तोड़ रहा है अथवा कितनी मेहनत से इसे बनाया था। बस उन घरौंदों की रेत को अपने पैरों से उछालते हुए, खुशी-खुशी भागकर अपने घरों की ओर चल पड़ते थे।
          हम अपने इस जीवन की कल्पना इन रेत के बनाए गए घरोंदों से कर सकते हैं। हम आजीवन मेहनत करके अपने और अपनों के लिए सुविधा के साजो सामान जुटाते हैं, मँहगी-मँहगी मोटर गाड़ियाँ खरीदते हैं। उस समय कोई उनकी तरफ आँख उठाकर देखे या उसे हथियाने की कोशिश करे तो हम मारने-मारने के लिए उतारू हो जाते हैं। बिना समय गँवाए हम अपने हक को वापिस पाने के लिए पुलिस के पास जाते हैं अथवा न्यायालय की शरण में चले जाते हैं।
          जब अपने जीवन की अवधि समाप्त हो जाने के पश्चात या जीवन के संध्याकाल में हमें परमपिता परमात्मा के पास जाना पड़ता है, तब सारा जुटाया हुआ ऐश्वर्य मिट्टी की तरह प्रतीत होने लगता है। उस समय मनुष्य को पश्चाताप होने लगता है कि अपना सारा जीवन उसने बस धूल में लट्ठ मारने का कार्य किया है। दुनिया में जन्म लेने से पहले ईश्वर से प्रार्थना की थी कि अन्धेरे से प्रकाश की और ले चल, मैं तुझे नहीं भूलूँगा, सदा याद रखूँगा।
          माता के गर्भ के कष्ट और अन्धेरे से मुक्त होकर जीव इस दुनिया में कदम रखता है। फिर धीरे-धीरे ईश्वर से किया हुआ अपना वादा भूल जाता है। इन दुनिया की चकाचौंध में वह इतना खो जाता है कि उसे अपनी ही सुधबुध नहीं रहती। यह दुनिया भी एक मेला है, जहाँ रंगबिरंगी मनभावन वस्तुएँ मिलती हैं। उनके आकर्षण में बँधा मनुष्य संसार के राग रंग में मस्त हो जाता है। असार संसार से विदा होने की बात को भूल जाता है। जब अन्त समय आ जाता है तब मनुष्य रोता है, अगले जन्म में वह ऐसी गलती नहीं करेगा। संसार में जाने के पश्चात सदा ईश्वर का स्मरण करेगा और दुनिया की भीड़ में नहीं खोएगा।
         जब तक मनुष्य अपने जीवनकाल में ईश्वर की आराधना सच्चे मन से नहीं करेगा तब तक वह दुनिया की भीड़ में खो जाएगा। फिर वह अपने प्रभु से दूर हो जाएगा। इसलिए जल में कमल की तरह इस संसार में रहते हुए अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। उसे अपना इहलोक और परलोक सुधारने का प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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