शनिवार, 24 मार्च 2018

जीवन की सार्थकता

जनमानस को जीवन में मार्गदर्शन करने वाले महापुरुष यदि मिल जाएँ तो मनुष्य का जीवन सफल हो जाता है। इसी कड़ी में भर्तृहरि जी का एक श्लोक पढ़ा। उसमें कवि ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण चर्चा की है। कवि हमें समझा रहे हैं-
क्षान्तिश्चेत्कवचेन किं, किमरिभिः क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनाम्।
ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद्दिव्यौषधै: किं फलम्।।
किं सर्पैर्यदि दुर्जनाः, किमु धनैर्विद्यानवद्या यदि।
व्रीडा चेत्किमु भूषणैः सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम्।।
अर्थात यदि मनुष्य धैर्यवान है तो उसे किसी भी अन्य कवच की क्या आवश्यकता? यदि व्यक्ति क्रोधी है तो उसे शत्रुओं की क्या आवश्यकता? यदि वह बन्धु-बान्धवों से घिरा रहता हैं तो उसे अन्य किसी अग्नि की क्या आवश्यकता? यदि उसके मित्र सच्चे हैं तो उसे किसी भी बीमारी के लिए औषधियों की क्या जरूरत? यदि वह दुर्जनों से घिरा रहता है तो उसे साँपों से डरने की क्या आवश्यकता? यदि वह विद्वान है तो उसे धन-दौलत की क्या आवश्यकता? यदि मनुष्य में लज्जा है तो उसे अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता? यदि वह विद्वान कवि है तो उसे किसी राजा की क्या आवश्यकता?
         कवि स्पष्ट कर रहे हैं कि मनुष्य का सबसे बड़ा कवच होता है धैर्य। ऐसे व्यक्ति को किसी भी अन्य कवच की आवश्यकता नहीं होती। धैर्यशीलता व्यक्ति का सबसे बड़ा गुण होता है। ये लोग दूसरों को क्षमा कर देते हैं। अपने मन में किसी के प्रति द्वेष की भावना नहीं रखते। इसलिए वे सदा अपने शान्त मन से बुराई करने वालों का स्वागत करते हैं। जब रखेगे उसका प्रतिकार करने के स्थान पर वे शान्ति का व्यवहार करेंगे तो दूसरा कब तक विरोध करता रहेगा।
        यदि व्यक्ति क्रोधी है तो उसे शत्रुओं की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि क्रोध मनुष्य के अपने शरीर में रहने वाला सबसे बड़ा शत्रु है। वह उसके विवेक का हरण कर लेता है। इससे मनुष्य के सोचने-समझने की शक्ति नष्ट होती है। क्रोध में मनुष्य अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम करता है। अपने बनते हुए कार्य बिगाड़ देता है, इससे उसको हानि उठानी पड़ सकती है। क्रोध में इन्सान अपने रिश्तों तक की पहचान भूल जाता है।
          जिस मनुष्य को अपने बन्धु-बान्धवों से घिरे रहने का सौभाग्य मिलता है, उससे बढ़कर सौभाग्यशाली कोई और मनुष्य इस संसार में नहीं हो सकता। उसे अन्य किसी अग्नि यानी शक्ति की कोई आवश्यकता नहीं होती। मनुष्य अपने बन्धुओं से पहचाना जाता है। उनका साथ उसकी सबसे बड़ी पूँजी होती है, ताकत होती है। उसके सुख-दुख में वे उसके साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर खड़े होते हैं।
        मनुष्य के पास सच्चे और अच्छे मित्र हों तो उसे किसी भी बीमारी के लिए औषधियों की आवश्यकता नहीं होती। सद् मित्रों की संगति से उसकी सर्वविध उन्नति होती है। ऐसी संगति में उसके दुर्गुण धीरे-धीरे नष्ट होते रहते हैं। उनके संसर्ग में वह कुन्दन की तरह चमकता है। इस तरह मानसिक और आत्मिक रूप से वह स्वस्थ राहट है। इसलिए औषधियों की आवश्यकता उसे अपेक्षाकृत न के बराबर होती है।
         दुर्जनों से घिरे रहने वाले मनुष्य को तो साँपों से डरने की कोई आवश्यकता नहीं होती। दुर्जनों का संसर्ग मनुष्य को कुमार्गगामी बनाता है। वह कब पतन के मार्ग पर चल पड़ता है, उसे पता ही नहीं चलता। उसके मौकापरस्त मित्र सदा अवसर की तलाश में रहते हैं। मौका मिलते ही अपने मित्र को साँप की तरह डसने में उन्हें कोई परहेज नहीं होता। इसीलिए दुर्जनों की संगति से बचने की शिक्षा मनुष्य को मनीषी देते हैं।
          विद्वान मनुष्य को धन-दौलत की नहीं ज्ञान की आवश्यकता होती है। उसका ज्ञान ही उसकी सबसे बड़ी पूँजी होता है। इसीलिए उसका अधिकांश समय अध्ययन और विद्वानों की संगति में ही व्यतीत होता है। इसलिए वह भौतिक सुख-साधनों के पीछे पागलों की तरह नहीं भागता। वह जानता है कि उसका लक्ष्य संसार के मकड़जाल में फँसना नहीं है। उसे तो बस ज्ञानार्जन करना है औऱ प्रभुभक्ति करते हुए मोक्ष की प्राप्ति करनी है।
          लज्जाशील मनुष्य को इन भौतिक आभूषणों की आवश्यकता अनुभव नहीं होती। वे अपने दायित्वों का निर्वहण पूर्णरूपेण करते हैं। वे देश, धर्म और समाज के नियमों के विरूद्ध कोई कोई कार्य नहीं करते। उनका पूर्ण रूप से पालन करते हैं। उन्हें समाज का, घर-परिवार का भय होता है। इसलिए उन्हें किसी प्रकार के स्वर्णादि आभूषणों की आवश्यकता नहीं होती।
        मनुष्य यदि विद्वान कवि है तो उसे किसी राजा की आवश्यकता नहीं होती। वह अपने जीवन में किसी भी राजदरबार में राजकवि नहीं बनना चाहता। अनावश्यक ही राजाओं का झूठा प्रशस्तिगान करके अपने स्वाभिमान को गिरवी नहीं रखना चाहता। राजदरबारी कवि बन जाने से उनके अपने स्वतन्त्र अध्ययन में बाधा आती है।
         इस श्लोक के माध्यम से कवि हम लोगों को सही मार्ग दर्शाना चाहता है। मनुष्य को सदा सोचविचार करके अपने जीवन में कदम आगे बढ़ाना चाहिए। अपने विवेक का आश्रय लेकर आगे कदम बढ़ाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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