शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

जीत की कामना

जीत की कामना हर व्यक्ति करता है अपने जीवन में कोई भी हारना पसंद नहीं करता। हालांकि हार और जीत दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जो नदी के दो किनारों की तरह कभी मिल नहीं सकते। वे आवश्यक दूरी बनाकर रहते हैं।
          एक समय में मनुष्य को जीत या हार दोनों में से कोई एक ही मिल सकती है। यह उसकी इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है कि वह अपने सिर पर जीत का सेहरा बाँधना पसंद करता है अथवा फिर हारकर अपना मन मसोसकर रह जाता है।
           खेल में जीत और हार के मायने अलग होते हैं क्योंकि वहाँ न जीत स्थायी होती है और न हार। वहाँ तो दोनों ही पक्ष आमने-सामने होते हैं जिनमें एक हारेगा और दूसरा जीतेगा। जिन्दगी की इस रेस में ऐसा नहीं होता। हम दोनों हाथों में लड्डू की तरह जीत और हार को एकसाथ लेकर तो आनन्दित नहीं हो सकते। यदि यहाँ जीत का लक्ष्य लेकर चलेंगे तो हार से बच सकने का रास्ता खोजने में आसानी होगी।
          जीवन के खेल में हर कोई जीत के लिए लड़ता है। अपने प्रतिद्वन्द्वी को धोबी पछाड़ देने का यत्न करता है। हार जाने की कल्पना एक छोटा बच्चा भी नहीं कर पाता जिसे शायद इसका अर्थ भी ठीक से नहीं पता होगा। जब भी वह हारने लगता है तो रोने लगता है और दूसरों पर धोखा देने का आरोप लगाने लगाता है और फिर खेल छोड़कर भाग जाता है।
         जीतने वालों के हौंसले बुलन्द रहते हैं। वे अपने लिए आदर्श स्थापित करते हैं और दूसरों के आदर्श बनते हैं। ये निर्भीक लोग चुनौतियों का डटकर सामना करते हैं और उन्हें अपने पक्ष में करके ही दम लेते हैं। आकाश की ऊँचाई, सागर की गहराई, पर्वतों की रुकावट उनके मार्ग में बाधा नहीं बनती। वे एक छोटी-सी नौका से विशाल सागर पार कर लेते हैं। साइकिल से विश्व भ्रमण तक कर लेता है। एक बार जीत की आदत हो जाने पर बार-बार मनुष्य को इसका स्वाद चखने की इच्छा होती है।
            इसके विपरीत हार जाना बहुत ही सरल होता है। हाथ पर हाथ रखकर निठल्ले बैठ जाओ, जरा भी उद्यम न करो तब हार निश्चित है। घर वाले उठते-बैठते सदा लानत-मलानत करते रहते हैं। सारा समय नाकामयाबियों के किस्से सुनाकर उसे अपमानित करते हते हैं। मित्रमंडली हारे हुए व्यक्ति का साथी बनने से इन्कार कर देती है। तब भी यदि वह हार का ठिकरा अपने सिर पर फोड़ने से बाज नहीं आए तो ईश्वर ही ऐसे लोगों की रक्षा कर सकता है।
           हारने वाला अपने जीवन से निराश रहता है। अपने पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक दायित्वों का निर्वहन न कर पाने के कारण मनुष्य सदा दूसरों के सामने अपना मुँह छिपाता फिरता है। उसके अपने पत्नी व बच्चे तक उसका साथ नहीं देते। वह अलग-थलग पड़ जाता है। उसे सदा के लिए ही नकारा घोषित करके अपनों से दूर कर दिया जाता है।
          सयाने कहते हैं- 'हारे को हरि नाम।' अर्थात जो व्यक्ति हार जाता है उसके पास परमात्मा की शरण में जाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचता।
           कुछ लोग हार जाने के डर से रेस का भाग ही नहीं बनते ऐसे ढुलमुल चरित्र वाले लोग पिछड़ जाते हैं। उनका नाम भी कोई नहीं लेता।
            जीत साहस, कठेर परिश्रम एवं निडरता का प्रतीक है और हार आलस्य, डर और भगोड़ेपन का। जो मनुष्य जितना आत्मविश्वास पूर्वक आगे बढ़ता जाता है वह उतनी ही बाधाओं को पार करता हुआ सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। यही जीते हुए लोग इतिहास के पन्नों में युगों-युगों तक अमर हो जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter- http://t.co/86wT8BHeJP

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें