शनिवार, 5 सितंबर 2015

आँखों देखी व कानों सुनी

आँखों देखी और कानों सुनी हुई बात पर भी हमें पूर्णरूपेण विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। प्रायः ऐसा होता है कि हम अधूरी बातें सुनकर ही किसी के प्रति अपनी राय बना लेते हैं जिसका दुष्परिणाम हमें समय आने पर भुगतना पड़ता है।
        लोग सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करके किसी व्यक्ति के विषय में धारणा बना लेते हैं जबकि वास्तविकता से उसका दूर-दूर तक लेना देना नहीं होता। सच्चाई के सामने आते ही मनुष्य को शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है और फिर वह बगलें झाँकने लगता है। ऐसी स्थिति से बचने का प्रयास करना चाहिए।
         आजकल टीवी पर अक्सर यह सब दिखाई देता है। वहाँ किसी वाक्य विशेष पर टीका-टिप्पणी अथवा चर्चाएँ नित्य होती रहती हैं। बाद में संबंधित व्यक्ति यह कहकर अपनी सफाई देता है कि मैंने जो इस वाक्य से पहले कहा था या उसके बाद, सारे प्रसंग को मिलाकर देखिए फिर कथन का अर्थ कीजिए। इस प्रकार कभी-कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है।
          सयाने हमें सोच-समझकर बात करने के लिए कहते हैं- 'पहले तोलो फिर बोलो।' यानि कि एक-एक शब्द को इस प्रकार सोचकर बोलो जिससे कोई उन शब्दों को अपने अनुसार ढालकर आपको अपमानित न कर सके। इसी कड़ी में आगे चेतावनी देते हुए कहते हैं-
         'दीवारों के भी कान होते हैं।'
इसका अर्थ यह नहीं है कि दीवारों के कान  लग गए हैं और उन्होंने ने सुनना शुरु कर दिया है। इसका अर्थ है कि कमरे के बाहर खड़ा हुआ कोई व्यक्ति शायद बात सुन रहा होगा। चोरी-छिपे दूसरों की बातों को सुनने वाले अक्सर गच्चा खा जाते हैं। पूरी बात न सुन पाने के कारण वे अधूरे विचारों को ही ब्रह्म वाक्य मान लेते हैं तथा शत्रुता तक कर बैठते हैं। पूर्वाग्रह पाले हुए वे आजन्म इसे निभाने का प्रयास करते हैं।
        घर-परिवार में, बन्धु-बान्धवों में अथवा कार्यक्षेत्र में हर स्थान पर ही यह समस्या सामने आती है। लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में इस प्रकार के कुत्सित कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।
          दूसरों की बातों को तोड़-मरोड़कर अथवा नमक-मिर्च लगाकर किसी व्यक्ति विशेष की छवि घर-परिवार में या साथियों में धूमिल करना चाहते हैं। वे अक्सर भूल जाते हैं कि उन्हीं की तरह कोई अन्य व्यक्ति भी ऐसा घृणित खेल खेल सकता है। इस सबसे बचने के लिए मनुष्य को हर कदम पर सदा सतर्क रहना चाहिए। उसे सदा अपनी आँखों और कानों को खुला रखना चाहिए।
         मनुष्य को किसी के भी मुँह से कोई बात सुनकर तैश में नहीं आना चाहिए। उसे बात की तह तक जाना चाहिए। हो सकता है कि कहने वाले का वह तात्पर्य कदापि न हो जैसा उसने सुन-समझ लिया हो। यदि बात को गहराई से समझने का मन न हो तो उस व्यक्ति से सीधी बात करके तथ्य को जाना जा सकता है।
        दूसरी बात यह कि दूसरे व्यक्ति को स्पष्टीकरण का मौका भी दिया जाना चाहिए। इससे अनावश्यक मन-मुटाव से बच सकते हैं। ऐसा यदि कर लिया जाए तो आपसी वैमन्स्य नहीं बढ़ता। न अपने मन को कष्ट होगा न दूसरे का दिल दुखता है। ऐसे समझदार व्यक्ति की संसार में सभी लोग सराहना करते हैं कि बड़ी सूझबूझ से समस्या को हल कर लिया।
चन्द्र प्रभा सूद
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