शनिवार, 26 सितंबर 2015

दूसरों की सहानुभूति बटोरना

दूसरों की सहानुभूति बटोरने में कुछ लोगों को बहुत मजा आता है। इसके लिए वे हर रोज नए-नए बहाने तलाशते रहते हैं। कभी अपने स्वास्थ्य का रोना रोते रहते हैं तो कभी अपनी नाकामयाबी का।
            कुछ लोग हर समय ही दूसरों के सामने अपने स्वास्थ्य अथवा अपनी मजबूरियों का रोना रो करके दूसरों को यह बताना चाहते हैं कि वे अकेले दुनिया में ऐसे हैं जो सबसे अधिक परेशान हैं। उन्हें इस बात को याद रखना चाहिए कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसे कोई परेशानी न हो। किसी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो कोई धन-संपत्ति के न होने से दुखी है। कोई बच्चों के कारण परेशानी में है तो कोई व्यपार-नौकरी के साथियों से कष्ट में हैं।
         बहुत-सी बेटियाँ विवाह के उपरान्त से ही अपने ससुराल के लोगों की बुराई करके मायके में सहानुभूति पाना चाहती है। ऐसा करके वे अपने ससुराल पक्ष का अपमान करती हैं। कुछ लड़कियाँ अपने पति की बुराई अपने माता-पिता के सामने करके उसका सम्मान कम करवा देती हैं। वे भूल जाती हैं कि ऐसा करके वे अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए माता-पिता से धन-सम्पत्ति बटोर सकती हैं पर अपने पति व अपने घर को बदनाम कर देती हैं।
          सास अपनी बहू की बराई करके अपने घर-परिवार तथा अपनी सखियों में सहानुभूति बटोरती है और बहू अपनी सास की बुराई करके अपने मायके व सहेलियों में सहानुभूति बटोरने का यत्न करती है। इस प्रकार पर से कीचड़ उछालकर वे एक-दूसरे की गरिमा को ठेस पहुँचाती हैं।
          कुछ पुरुष साथी महिलाओं की सहानुभूति पाने अथवा उनसे दोस्ती करने के लिए अपनी पत्नी के विषय में झूठी और मनगढ़न्त कहानियाँ सुनाकर उसके चरित्र को कलंकित करने से नहीं हिचकिचाते। उनकी पत्नी यदि सामने आ जाए तो उनकी पोल खुल जाती है।
         इसी प्रकार कई महिलाएँ भी कमोबेश इसी प्रकार का व्यवहार करके यानि अपने पति व अपने घर की बुराई करके दूसरे पुरुष मित्रों से अनावश्यक अतरंगता बढ़ाने का यत्न करती हैं। इस प्रकार करके पुरुष एवं महिलाएँ समाज में हंसी का पात्र बनते हैं और सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध चलने का दोषी बनते हैं।
          कभी-कभी मित्र भी अपने दोस्तों की भावनाओं का मजाक उड़ाते हुए उनसे जब तब अपना मतलब पूरा करने का प्रयास करते हैं।
           असली मुद्दे की बात यह है कि जो भी लोग इस प्रकार से दूसरों की जायज-नाजायज तरीकों से सहानुभूति पाना चाहते हैं  वे भूल जाते हैं कि जब सच्चाई सामने आती है तो बहुत ही शर्मसार होना पड़ता है।
       कहने का तात्पर्य है यह है कि झूठ के पैर नहीं होते और सच्चाई कभी छुप नहीं सकती। सच और झूठ में कभी सच का पलड़ा भारी हो सकता है तो कभी झूठ का। पर अन्त में सत्य सात पर्दों से मुस्कुराता हुआ बाहर आ ही जाता है। तब झूठ का लबादा उतर जाता है।
         अपनी स्थिति के विषय वास्तविक जानकारी देना उपयुक्त होता है। इससे न तो अपनी स्वयं की हेठी नहीं होती है और न ही रिश्तों की गरिमा नष्ट होती है। रिश्तों में सद्भाव बढ़ाने के लिए नफरत और झूठ का नहीं प्यार और सच्चाई का छौंक लगाएँ। ऐसा करने से रिश्तों की गर्माहट कम नहीं होती बल्कि और एक-दूसरे के प्रति विश्वास बना रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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