रविवार, 27 सितंबर 2015

पिता की महानता

आकाश की ऊँचाई सदा से उसकी महानता का प्रतीक रही है जिसे छूना शायद मनुष्य के लिए नामुमकिन है। उसे छू पाने की होड़ लगाते हुए पक्षी ऊँचे और अधिक ऊँचे तक उड़ने का प्रयत्न करते हैं परन्तु वे आकाश की ऊँचाई तक पहुँच ही नहीं पाते तब उसे छू लेना बड़ी दूर की बात हो जाती है। हाँ, इस प्रयास में उनके पंख अवश्य टूट जाते हैं। वे लहूलुहान भी हो जाते हैं, थककर चूर हो जाते हैं। फिर वे निराश होकर बैठ जाते हैं। कभी-कभी कुछ पक्षी अपने प्राणों की आहुति तक दे देते हैं।
        आकाश का गहरा नीला रंग आरम्भ से ही कलाकारों, चित्रकारों और रचनाकारों के लिए सदा प्रेरणा का स्त्रोत रहा है। जब प्रातःकाल सूर्य भगवान का आविर्भाव होता है तब वहाँ पर छाई हुई लालिमा देखते ही बनती है। उस समय आकाश पर छाया वह अंधेरे का साम्राज्य हमारे देखते-देखते सूर्य के प्रकाश से ओझल हो जाता है। उसका निखरा हुआ नया रूप हमारे सामने आ जाता है।
           मध्याह्न काल (दोपहर) में सूर्य के प्रचण्ड तेज से दमकते आकाश की छवि कुछ अलग-सी दिखाई देती है। उस समय उसकी चमक को हम देखने में समर्थ नहीं हो पाते क्योंकि सूर्य के तेज से हमारी आँखे चुँधियाने लगती हैं।
         रात्रि में अंधेरा होता है आसमान काले रंग का दिखाई देता है। उस समय हमें ऐसा लगता है मानो काली चादर पर किसी ने चमकते हुए चाँद और सितारे टाँक दिए हों। रात में झिलमिल करती हुई इस चादर की छवि को निहारने का आनन्द कुछ अलग प्रकार का होता है।
         आकाश को कुछ समय के लिए जब बादल ढक लेते हैं तब उसके बाद निकलने वाले इन्द्रधनुष की छटा निहारते ही बनती है। चमकता हुआ आसमान और उस पर दमकता हुआ सात रंगों से सजा इन्द्रधनुष सबका मन मोह लेता है।
        ऐसी महानता और ऊँचाई वाले आकाश से भी बड़ा स्थान शास्त्रों ने पिता का माना है। पिता मनुष्य को इस पृथ्वी पर लाने वाला होता है। वह अपने बच्चे का पालन-पोषण करता है। उसकी सारी आवश्यकताओं को पूर्ण करता है। उसे पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाता है ताकि वह सिर उठाकर सब लोगों के सामने गर्व से खड़ा हो सके। जब बच्चा योग्य बनकर अपने दायित्वों को निभाने लगता है तब पिता गर्व से फूला नहीं समाता।
          पिता अपनी सन्तान के माध्यम से  अपने सारे सपनों को साकार करना चाहता है। जब दूसरे लोग उसके बच्चे को होनहार अथवा योग्य संतान कहकर प्रशंसा करते हैं तो उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। पिता सदा संतान का शुभचिन्तक होता है। वह अपने सारे कष्टों और अभावों के  बावजूद संतान का हित साधता है।
         जिस प्रकार आकाश को छू पाना किसी के लिए भी असम्भव है उसी प्रकार पिता की महानता को छू सकना बच्चों के बस की बात नहीं होती। संतान के लिए जो कार्य पिता करता है उससे मनुष्य उऋण नहीं हो सकता चाहे आयुपर्यन्त उसकी सेवा करता रहे। बच्चे पिता के ऊँचे कद के बराबर नहीं पहुँच सकते। इसलिए पिता की महानता और उसकी ऊँचाई का सम्मान करते हुए उससे होड़ न करके उसे हर प्रकार से प्रसन्न रखने का प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सू
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