सोमवार, 13 मार्च 2017

जीवनसाथी से विश्वासघात

अपने जीवन साथी के साथ विश्वासघात करने की अनुमति समाज किसी को कदापि नहीं देता, फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष हो। यदि उन्हें विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने की स्वतन्त्रता दे दी गई होती तो सामाजिक व्यवस्था का ताना-बाना अब तक टूटकर कब का बिखर गया होता। उस स्थिति में इन्सान पशुओं के समान व्यवहार करने वाला बन जाता। चारों ओर अनुशासनहीनता का वातावरण बन जाता।
        भारतीय संस्कृति में आदर्श वैवाहिक व्यवस्था का आधार ही ऐसा है जिसमें स्त्री और पुरुष यानी पति और पत्नी को परस्पर विश्वासपूर्वक सामञ्जस्य स्थापित करके अपना सम्पूर्ण जीवन यापन करना होता है। इसमें एक-दूसरे प्रति ईमानदार रहना और किसी प्रकार के छिपाव-दुराव की किञ्चित भी गुँजाइश नहीं बचती। इसका निर्वहण स्वेच्छा और ईमानदारी से करना ही दोनों पक्षों का प्रथम दायित्व होता है।
        पुरुषप्रधान समाज में किसी भी पुरुष को उच्छृँखलता के वशीभूत हो अमर्यादित विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने की स्वीकृति हमारा यह समाज नहीं देता। किसी कवि ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में इसी भाव पर अपनी मोहर लगाई है -
           कलत्रं  पृष्टतः कृत्वा रमते  यः परस्त्रियः।
          अधर्मश्चापदस्तस्य सद्यः फलति नित्यशः॥
अर्थात अपनी पत्नी की पीठ पीछे या छिपकर जो व्यक्ति दूसरी स्त्रियों के साथ अनैतिक प्रेमसम्बन्ध बनाते हैं, अपने  इस अधार्मिक कृत्य के फलस्वरूप वे शीघ्र ही सदा के लिये आपदाग्रस्त हो जाते हैं।
         इस श्लोक के कहने का तात्पर्य यही है कि विवाहेत्तर सम्बन्ध रखने वाले पुरुष मुसीबत में घिर जाता है। घर-परिवार और समाज उसे हेय दृष्टि से देखता है। पत्नी के साथ उसके नित्य प्रति होने वाले झगडों के कारण उनमें आपसी वैमनस्य बढ़ता है। अन्ततः जिसका परिणाम अलगाव होता है।
        अनैतिक यौन सम्बन्ध बनाने वाले ऐसे लोग कभी-कभार बिमारियों का भी शिकार हो जाते हैं। उस समय कोई भी उनके साथ सहानुभूति नहीं रखता, उनका साथ नहीं निभाता। अपने उस रोग के कारण असहाय अवस्था में वे अकेले रह जाते हैं और तब पश्चाताप करते रहते हैं। स्वयं को कुमार्ग पर चलने के लिए कोसते हैं। जब हालात काबू से बाहर हो जाते हैं तब इस सबका कोई लाभ नहीं होता।
          घर में मनोनुकूल पत्नी के न होने का बहाना बनाकर विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने को भी स्वीकृति नहीं दी जा सकती। ऐसे कुव्यसनी लोग कहते हैं-
                वरं न दारा न कुदारदाराः।
अर्थात एक कुपत्नी के होने से बिना पत्नी वाला अर्थात पत्नीरहित होना ही अच्छा है।
               कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः।
अर्थात कुपत्नी के साथ घर से लगाव कैसे हो सकता है?
        उनका कथन यही है कि यदि पत्नी अच्छी नहीं है अथवा दुराचारिणी है तो उसके साथ रहने का कोई औचित्य नहीं है। उसका परित्याग कर देना ही श्रेयस्कर होता है। ऐसी पत्नी का जीवन भर साथ निभाने से अच्छा है कि इन्सान अकेले ही रहने लग जाए।
           उपरोक्त कहे गए इन विचारों से यही समझ में आता है यानी यही सिद्ध होता है कि ऐसे सम्बन्ध चाहे पत्नी बनाए अथवा पति बनाए वे किसी को भी मान्य नहीं हैं। पति या पत्नी दोनों ही अपने साथी के अनैतिक सम्बन्धों को कदापि सहन नहीं कर सकते। यदि ऐसी स्थिति कभी एक साथी की बनती है तो उनमें नित्य-प्रति कलह-क्लेश का साम्राज्य हो जाता है। उनका घर नरक की तरह बन जाता है जिसकी सर्वत्र आलोचना होती है।
         जब तक दोनों ही परस्पर एक-दूसरे के प्रति समर्पित नहीं रहेंगे तब तक उनमें तालमेल नहीं बन सकता। उनमें आपसी सामञ्जस्य के लिए विश्वास का होना बहुत ही आवश्यक है। तभी घर-गृहस्थी की गाड़ी सफलतापूर्वक चलते हुए चारों ओर अपनी सुगन्ध बिखेरती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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