बुधवार, 8 मार्च 2017

व्यवहार पर अंकुश

आजकल भौतिक प्रगतिशीलता के चलते हम लोग कंक्रीट के जंगलों का बड़ी तेजी से निर्माण और विकास करते जा रहे हैं। इस कारण दिन-प्रतिदिन नीम जैसे छायादार और औषधीय गुणों से युक्त पेड़ों को भी काटकर कम करते जा रहे हैं। पेड़ों पर अमानवीय अत्याचार करने के कारण ही आज पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ता जा रहा है। इसके लिए वैज्ञानिक बहुत चिन्तित रहने लगे हैं।
        शायद इसीलिए घर-परिवार में रहने वाले बन्धु-बान्धवों के सम्बन्धों में परस्पर मधुरता चुकती जा रही है और उसके स्थान पर उनके मध्य कटुता बढ़ने लगी है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो वे दिन दूर नहीं जब हम अपनों से शीघ्र ही दूर हो जाएँगे। तब हमें ढूँढने पर भी अपने प्रियजन नहीं मिल सकेंगे। हम उनकी परछाई के लिए भी तरसने लगेंगे।
        लगता है कि आपसी सामञ्जस्य, समरसता, भाईचारा, मेलजोल आदि शब्द अब शायद शीघ्र ही शब्दकोश के पन्नों में आश्रय ढूँढने लग जाएँगे। एक ओर जहाँ हमारी जुबान की मिठास कम हो रही है तो वहीं दूसरी ओर शुगर जैसी जानलेवा  बिमारियाँ मनुष्य के शरीर में अपना घर बनाती जा रही हैं। स्वस्थ समाज के लिए इस संकेत को विद्वान कदापि शुभ नहीं मानते।
        इसका सबसे बड़ा कारण समाज में तेजी से अपने पंख फैलाती असहिष्णुता को मान सकते हैं। मनुष्य में जितना अधिक स्वार्थ, धैर्यहीनता, असन्तोष आदि पनपते जा रहे हैं उतना ही वह असहिष्णु बनता जा रहा है। ऐसी स्थिति में वह कुछ जानना और समझना ही नहीं चाहता। इसीलिए सभी लोगों में परस्पर मनोमालिन्य बढ़ता जा रहा है।
          आजकल जन साधारण में आपसी भाईचारा घटता जा रहा है और उनकी सहनशक्ति मानो चुकती जा रही है। ऐसी अनहोनी स्थितियाँ समाज के लिए कभी शुभ नहीं कही जा सकतीं। हमने अपने जीवन में इसकी कभी परिकल्पना भी नहीं की थी। इनका परिणाम आने वाले दिनों में और अधिक घातक सिद्ध हो सकता है। जिसके विषय कोई भी व्यक्ति विचार करना ही नहीं चाहता। यदि इस विषय पर चर्चा होने लगे तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। आपसी विचार-विमर्श और सद्भाव हर क्षेत्र में सकारात्मक निर्णय ले सकते हैं। इसलिए बातचीत का मार्ग हमेशा खुला रखना चाहिए।
          जब हम अपने सम्बन्धों की मधुरता को खो देते हैं और उसके स्थान पर कटुता को प्रधानता देते हैं तब सबसे कटकर अलग-थलग पड़ जाते हैं। उस समय सब भूल जाते हैं कि सामाजिक प्राणि मनुष्य समाज से कटकर कैसे जी सकेगा? उसे तो अकेले रहना आता ही नहीं है। हर कदम पर उसे दूसरों के सहारे की आवश्यकता होती है।
         यदि इन्सान को ईश्वर ने अपने आप में सिमटकर रहने का गुण दिया होता तो उसे न परिवार बनाने की आवश्यकता होती और न ही भाई-बन्धुओं की। तब वह साधु-सन्यासियों की भाँति अकेला ही जंगलों अथवा पर्वतों की गुफाओं में रहता होता। उस स्थिति में उसे घर बनाने, धन-सम्पत्ति जुटाने तथा कमाने की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती।
         उसके पास निभाने के लिए दायित्व भी नहीं होते, जिन्हें पूर्ण करने के लिए वह हाड़-तोड़ अथक परिश्रम करता है। सबके साथ मिलकर रहता है, इसीलिए भयावह अकेलेपन का अहसास उसे नहीं होता। अपने जीवन को सही मायने में जीने की कला वह सीखता रहता है। सुख-दुख अपने स्वजनों के साथ बाँटकर वह मस्ती के पल जी लेता है।
        मनुष्य अपने व्यवहार पर थोड़ा अंकुश लगाकर मधुर आचरण कर करके सबका प्रिय बन सकता है। अपने परिजनों के बल पर ही वह उछलता रहता है क्योंकि वही उसकी शक्ति होते हैं। इस शक्ति को बचाकर रखने की महती आवश्यकता का उसे भान हमेशा रहना चाहिए। इसे खो देने का अहसास उसके अंतस को गहरे तक कचोटता है। इसलिए अपनी जीवनन्तता को बनाए रखने के लिए अपनो को सहेजकर सम्मानपूर्वक रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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