शुक्रवार, 3 मार्च 2017

रूढ़ियों से बचना आवश्यक

व्रत रखना अथवा किसी त्योहार को मानना, यह व्यक्तिगत आस्था का विषय है, किसी पर उसे थोपना अनुचित कहलाता है। यदि कोई स्वेच्छा से अथवा प्रसन्नता से व्रत रखता हैं तो यह एक अलग विषय है। परन्तु यदि कोई नहीं रखता अथवा उसे ढकोसला मानता है तो उसकी अपनी सोच है। इसके लिए किसी की आलोचना करना या टीका-टिप्पणी करना किसी भी तरह क्षम्य नहीं है।
         इस कारण अपने सामने वाले को स्वयं से हेय दृष्टि से देखना, उसे पाखण्डी या दिखावटी धार्मिक समझना अनुचित है। यह व्यक्ति विशेष के अहंकार का परिचायक होता है। हर व्यक्ति का अपना एक दृष्टिकोण होता है। वह चाहे सही हो या गलत, उसका फैसला करने का अधिकार किसी को नहीं होता। उसे अपनी कसौटी पर परखना किसी भी समझदार के लिए अनुचित होता है।
         वर्षभर में लोग अनेक व्रत रखते हैं। साथ ही वे कई प्रकार के नियमों का भी पालन करते हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि उनके समान अन्य कोई ईश्वर का भक्त नहीं है। इसके विपरीत कुछ लोग इन व्रतों के मकड़जाल में न पड़ते हुए अन्य विधियों से ईश्वर की आराधना करते हैं। इसका यह तात्पर्य बिल्कुल भी नहीं लगाया जा सकता कि इनमें से कौन श्रेष्ठता का प्रमाणपत्र पाने का वास्तव में अधिकारी बन गया है।
          करवाचौथ का व्रत ही लीजिए। यह श्रद्धा और विश्वास के साथ पति की लम्बी उम्र के लिए रखा जाता है। इसी आशय से ही किसी तीज का व्रत भी रखा जाता है। अपने विवेक की कसौटी पर यदि खरा उतरे तो ऐसे व्रत अवश्य रखने चाहिए। इस बात को सदा स्मरण रखना चाहिए कि विश्व में मुट्ठी भर स्त्रियाँ ही ये व्रत रखती हैं। यदि इन व्रतों को रखने से किसी की आयु बढ़ती तो आज तक किसी पुरुष की मृत्यु न हुई होती और कोई स्त्री विधवा न होती।
         विचारणीय है कि जो पुरुष दिनभर बैठे-ठाले पति-पत्नी के रिश्ते को शर्मसार करने वाले चुटकुले बनाते हैं, अपनी पत्नी को पैर की जूती तथा दोयम दर्जे का मानते हैं और उसे बच्चे पैदा करने की मशीन से अधिक कुछ नहीं समझते, चूल्हे-चौके से आगे उनकी हैसियत मानने के लिए भी तैयार नहीं होते, ऐसी संकीर्ण मानसिकता वाले वे पुरुष इस लायक नहीं हैं कि उनके लिए व्रत रखा जाए।
         इससे भी बढ़कर वे पुरुष हैं जो सदा अपनी पत्नी का दूसरों के समक्ष मजाक बनाते हैं, उसके अहं को तार-तार करते नहीं अघाते, अपनी भाभियों और सालियों के साथ चुहलबाजी करने की ताक में रहते हैं, विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाते हैं, ऐसे दोगले, समर्पण से दूर और अविश्वसनीय पुरुषों के लिए व्रत रखने का कोई औचित्य समझ नहीं आता।
        यह व्रत भी आजकल मानो फैशन का प्रतीक बनता जा रहा है। किस स्त्री ने कितना अधिक खर्चा किया, यह होड़ बढ़ती जा रही है। नए-नए डिजाइनर कपड़े और जेवर पहनकर उनकी प्रदर्शनी करना व्रत रखने से अधिक महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। किसने कौन-सी फिल्म देखी उसका बखान करना भी शायद आवश्यक बनता जा रहा है।
          दुर्भाग्यवश जिन महिलाओं को ये सब नहीं मिल पाते उनके मन में कुण्ठा घर करने लग जाती है। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप पिछले दिनों किसी पत्नी ने अपने पति की हत्या तक कर डाली।
        वैसे बहुत-सी स्त्रियों ने इन व्रतों को रखना छोड़ दिया है। इनके विरोध और समर्थन दोनों में लोग अब चर्चा करने लगे हैं। हालाँकि कामकाजी महिलाएँ ऐसे व्रत रखने के पक्ष में नहीं है। उन्हें अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इसके लिए उन पर व्यंग्य बाण छोड़े जाते हैं। मेरा मानना है कि जो पुरुष स्त्री की परेशानियों को नहीं समझना चाहता, वह अपनी पत्नी से यह व्रत रखने की निश्चित ही अपेक्षा अवश्य करता है।
         नारीमुक्ति का परचम फहराने और भाषण देने वाली तथाकथित यानी सो कॉल्ड महिलावादी स्त्रियों को शायद इन रूढ़ियों से मुक्ति नहीं चाहिए। सम्भवत: इसीलिए उन्होंने इस विषय पर अपने विचार नहीं रखे हैं। यदि उन्हें वास्तव में बदलाव की कामना है तो स्वयं अपने से ही शुरुआत करनी चाहिए। इन थोपी हुई सड़ी-गली रूढ़ियों से मुक्त होने कीआधुनिक वैज्ञानिक युग में सचमुच बहुत आवश्यकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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