गुरुवार, 23 मार्च 2017

परछाई छू नहीं सकते

हर मनुष्य की अपनी स्वयं की एक परछाई होती है। वह अपनी परछाई के पीछे सदा भागता रहता है जो कभी उसके हाथ नहीं लगती। मनुष्य आगे-आगे चलता जाता है और यह परछाई हमेशा उसके पीछे-पीछे ही चलती रहती है। चाहकर भी वह हाथ बढ़ाकर उसे छू नहीं सकता।
         इंसान जब पीछे मुड़ जाती कर इसे देखने का प्रयास करता है तो यह सिमट है और दिखाई नहीं देती। थोड़ी देर के बाद जब वह सीधा चलने लगता है तो यह पुन: उसके पीछे हो जाती है। यह मृगतृष्णा के ही समान उसे छलती रहती है। कोई भी मनुष्य सदा के इसे लिए बाँधकर नहीं रख सकता।
          मनुष्य जहाँ भी जाता है उसकी यह परछाई उसके साथ-साथ चलती हुई सी सबको दिखाई देती है। यह प्रकाश में ही दिखाई देती है। प्रात:काल और सायंकाल यह छोटी होती है दोपहर के समय लम्बी। रात के स्याह अंधेरे में यह भी छिप जाती है और तब दिखाई नहीं देती।
       यह एक दास की तरह पूर्ण रूपेण हमारा अनुसरण करती है। हम धीरे-धीरे चलते हैं तो यह भी मस्त चाल में चलती है। हम तेज-तेज चलते हैं तो यह भी तेजी दिखाती है और यदि हम भागते हैं तो यह भी भागती हुई दिखाई देती है। कहने का तात्पर्य यही है कि कैसी भी गति में हम हों हमारे पीछे-पीछे रहती है।
           ऐसा कहा जाता है कि जब मनुष्य दुखों और परेशानियों के अंधेरे काले बादलों से घिर जाता है उस समय इस दुनिया के सभी भौतिक रिश्ते-नाते उसका साथ छोड़ देते हैं यहाँ तक कि उसकी अपनी परछाई भी उससे मुँह मोड़ लेती है।
          कहने का तात्पर्य यही है कि रात की कालिमा जैसे भयंकर कष्ट के समय यह परछाई भी बेगानी हो जाती है और मनुष्य से दूर भाग जाती है। जब उसके जीवन से दुख के बादल छटने लगते हैं और मनुष्य को पुन: आशा की एक किरण दिखाई देने लगती है। तब धीरे-धीरे उसके दुखों का अन्त होने लगता है। उसके जीवन में सुखों के साथ-ही-साथ स्थायित्व का प्रकाश भी चमकने लगता है। उस समय यह फिर उसके पीछे हो लेती है और साथ चलने लगती है। यानि यह भी मनुष्य के सुख की साथी है दुख की कदापि नहीं।
          यह वही परछाई होती है जो कहने के लिए मनुष्य की अपनी होती है। परन्तु इस पर भी अन्य भौतिक पदार्थों की तरह भरोसा न करने का परामर्श हमारे विद्वान हमें देते हैं।
          इस परछाई के विषय में एक और बात जो खास तौर से कही जाती है वह यह है कि जब मृत्यु मनुष्य के सिर पर मंडरा रही होती है उस समय मनुष्य की परछाई दिखनी बंद हो जाती है। अर्थात मनुष्य जीवन के अन्तकाल के पहले ही यह परायों की तरह उसका साथ छोड़ देती है। बस यहीं तक का उसका और मनुष्य का साथ होता है।
      भौतिक जगत की शेष अन्य सम्पदाओं की भाँति यह भी केवल इसी संसार में ही साथ निभाती है परलोक में हमारा साथ निभाने नहीं जाती। इस तरह तो उसे हम विश्वसनीय नहीं कह सकते।
         मनुष्य को चाहिए कि मृगतृष्णा के समान धोखा देने वाले इन छलावों के प्रपंच से यथासंभव बचकर रहे। इनके जाल में फंसने से जीवन में कष्ट के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता। ईश्वर सबके जीवन में भरपूर सुख और शान्ति दे इसी कामना के साथ।
चन्द्र प्रभा सूद
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