गुरुवार, 2 मार्च 2017

पढ़ने की प्रवृत्ति

आज समय और परिस्थितियाँ बदल रही हैं। पुस्तकें पढ़ने की प्रवृत्ति मानो कहीं खो रही है। दुर्भाग्य की बात है कि बच्चे पढ़ने के नाम से ही दूर भागने लगते हैं। अपनी पाठ्य पुस्तकों के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें पढ़ने में बच्चों की कमतर होती प्रवृत्ति वास्तव में चिन्ता का विषय बनती जा रही है। बड़े हो जाने पर उनकी यह आदत और अधिक परिपक्व हो जाती है।
         इसके लिए अकेले बच्चों को दोष नहीं दिया जा सकता। आज कम्पीटिशन के इस युग में माता-पिता प्रायः बच्चों को अपने विषय के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें पढ़ने से निरुत्साहित करते हैं। वे शायद इसे समय की बरबादी मानते हैं। हम इस बात से कदापि इन्कार नहीं कर सकते कि विषयेतर पुस्तकें पढ़ने से पढ़ाई के तनाव से मुक्ति मिलती है। मन और मस्तिष्क को एक प्रकार की नवीन स्फूर्ति व ऊर्जा मिलती है।
        जिस व्यक्ति ने पुस्तकों को मित्र बना लिया, उसे किसी अन्य की आवश्यकता नहीं रह जाती। उसे कभी अकेलेपन का अहसास ही नहीं होता। पुस्तकें ज्ञान का अथाह भण्डार होती हैं। जितना मनुष्य इस ज्ञान के सागर में गहरे पैठता जाता है, गोते लगाना सीख लेता है, वह उतने ही मोती चुनकर ले आता है। ऐसे उस महामानव की विद्वत्ता के समक्ष कोई भी अन्य व्यक्ति नहीं ठहर सकता। सभी उसकी विद्वत्ता के कायल हो जाते हैं। ऐसे ही विद्वान नीर-क्षीर विवेकी कहलाते हैं।
        साहित्य सदा से ही लिखा और पढ़ा जाता रहा है। ये हमारी धरोहर है। हमारे साँस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक मूल्यों का ज्ञान हमें अपने इन महान ग्रन्थों से ही प्राप्त होता है। प्राचीन महान विरासत को जानने-समझने में ये हमारी सहायता करते हैं। किसी भी प्रकार के अनुसन्धान को करने के लिए हमें इन ग्रन्थों की महती आवश्यकता होती है।

        भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में इन पुस्तकों का बहुत बड़ा योगदान रहा है, इसे नकारा नहीं जा सकता। उस समय के बहुत-से कवियों और लेखकों ने जनजागृति करने के अपने दायित्व को बखूबी निभाया था।
         आज यह त्रासदी है कि पुस्तकों के विक्रय की समस्या दिन-प्रतिदिन विकराल रूप धारण करती जा रही है। सरकारी खरीद कम होती जा रही है। लोग स्वयं खरीदकर पुस्तकें पढ़ना नहीं चाहते। वे चाहते हैं कि उन्हें उपहार में मिल जाएँ और इसके लिए अपनी जेब से राशि व्यय न करनी पड़े। इस संकुचित सोच के चलते साहित्य को क्षति हो रही है। ऐसा प्रतीत होता है मानो आजकल फिर से प्राचीन काल वाला 'बार्टर सिस्टम' आ गया है। तुम अपनी पुस्तक मुझे भेंट करो और मैं अपनी पुस्तक तुम्हें भेंटस्वरूप में दूँगा।
        कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता को इसी से परखा जा सकता है कि साझा संकलनों में छपकर भी उस पुस्तक की प्रति क्रय नहीं करना चाहते। बताइए भला यह भी कोई बात हुई? ये तथाकथित महान साहित्यकार जब दूसरे रचनाकारों को नहीं पढ़ना चाहते तो दूसरों से यह आशा करना ही व्यर्थ है कि वे उन्हें पढ़ें।
         डर इस बात का है कि कहीं पुस्तकें कबाड़ी बाजार से ही खरीदने के लिए न मिलने लगें। आजकल दिल्ली के दरिया गंज क्षेत्र में रविवार के साप्ताहिक बाजार में पुस्तकें औने-पौने भाव पर मिलती हैं। और भी न जाने ऐसे कितने बाजारों में ये पुस्तकें मिलती हैं। इसीलिए ही शायद किसी विद्वान ने व्यथित होकर इतना कड़वा सच लिखा है -
'जब किताबें सड़क के किनारे पर रखकर बिकेगी और जूते काँच के शोरूम में, तब यह समझ जाना चाहिए कि लोगों को ज्ञान की नहीं जूते की जरुरत है।'
         कहने का तात्पर्य यही है कि एवंविध साहित्य लेखन की इस दुर्दशा के लिए लेखक व प्रकाशक सभी उत्तरदायी हैं। सभी सुधीजनों से अनुरोध है कि साहित्य को पल्लवित और पोषित करने के लिए सहृदय बनें। बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित करनी चाहिए। दो-चार कामिक्स उन्हें दिलवाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं समझनी चाहिए। जब तक बच्चों में अपने साहित्य-संस्कार घुट्टी में नहीं दिए जाएँगे, तब तक साहित्य का उद्धार नहीं हो सकता। कम्प्यूटर से चाहे कितना ही ज्ञान क्यों न मिल जाए, पुस्तक पढ़ने की उनकी आदत छूटनी नहीं चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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