मंगलवार, 7 मार्च 2017

भाग्य से अधिक नहीं मिलता

मनीषियों का कथन है कि मनुष्य को अपने भाग्य से अधिक और समय से पहले इस संसार में कुछ नहीं मिलता। पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर उचित समय पर मनुष्य को बिनमाँगे स्वयं ही देता है। वह कितना ही परेशान क्यों न हो जाए अथवा रोता-झींकता रहे परन्तु इसका कोई समाधान निकाल पाना उसके बस की बात नहीं है।
        मनुष्य को अपने इस जीवनकाल में सन्तोष का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। उसे स्मरण रखना चाहिए कि सुख और दुख परछाई की तरह मनुष्य के अगल-बगल यानी साथ-साथ कदमताल करते हुए चलते रहते हैं। कभी सुख आगे कदम बढ़ाता है तो कभी दुख का कदम पहले उठ जाता है। जब सुख का कदम आगे होता है तब दुख पीछे होता है। इसी तरह जब दुख का कदम आगे बढ़ता है तो सुख पीछे होता है। कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि सुख और दुख दोनों उससे कभी दूर जाते ही नहीं।          
        इस रहस्य को झूले के उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। झूला जितना पीछे की ओर जाता है, उतना ही आगे भी आता है। यानी आगे और पीछे एकदम बराबर ही रहता है। उसी प्रकार सुख और दुख दोनों ही जीवन में बराबर आते हैं। जिन्दगी का झूला यदि पीछे की ओर जाए, तो घबराना नहीं चाहिए। इस आशा के साथ जीना चाहिए कि वह शीघ्र ही आगे की ओर भी आएगा।
          कह सकते हैं कि सुख और दुख दोनों ही क्रमानुसार मनुष्य के जीवन में दस्तक देते रहते हैं। वे अपने स्वभाव के अनुरूप उसे मीठा अथवा कड़वा फल चखाते रहते हैं। दुर्भाग्य कभी दस्तक देकर नही आता। मनुष्य कितना भी विवेकी क्यों न हो, भाग्य के बिना उसकी जीत असभ्भव होती है। यदि भाग्य में न हो तो बीरबल जैसा बुद्धिमान भी राजा नही बन सका जबकि मूर्ख भी राजा बन जाते हैं।
         इसी भाव को दर्शाती हुई एक कथा बचपन में कभी सुनी थी। धन-दौलत से सम्पन्न एक सेठ जी थे। उन्होंने अपनी बराबरी के एक बड़े घर में बेटी की शादी की थी। दुर्भाग्य ने बेटी के जीवन मे दस्तक दी। उसका पति शराब और जुए के दुर्व्यसन का शिकार हो गया। इस कारण उनका सारा धन बरबाद हो गया।
           बेटी की इस दुर्दशा को देखकर सेठानी अपने पति से बेटी की सहायता करने का आग्रह करती। सेठ जी बहुत परोपकारी प्रवृत्ति के थे। अपने द्वार पर आने वालों की भरपूर सहायता करते थे। सेठानी को यही दुख था कि वे परेशानी में दुखी होती अपनी बेटी की सहायता नहीं कर रहे थे।
          दूसरी ओर सेठ जी का कहना था कि जब बेटी के भाग्य के उदय होने का समय आएगा तो अपने आप ही सब लोग उसकी मदद करने के लिए अपना हाथ बढ़ाएँगे। वे मानते थे कि भाग्य यदि रूठा हुआ हो तो किसी की दी हुई सहायता भी काम नहीं आती।
        एक दिन सेठ जी घर से बाहर निकले ही थे कि तभी उनका दामाद घर आया। सास ने दामाद का आदर-सत्कार किया। बेटी की मदद करने का विचार उसके मन में आया। उसने लड्डूओं के बीच अर्शफिया छिपाकर रख दीं और दामाद को अर्शफियों वाले लड्डू दे दिए। ससुराल से निकलते समय उस दामादने सोचा कि इतना भार ढोकर ले जाने का कोई लाभ नहीं। मिठाई की दुकान पर इन्हें बेच देता हूँ। उसने वे लड्डू बेच दिए और पैसे जेब में डाल लिए।
         सेठ जी जब घर वापिस लौटने लगे तो मिठाई की दुकान से उन्होंने लड्डू खरीदे। दुकानदार से अशरफियों वाले वही लड्डू सेठ जी को बेच दिए। घर आए उन लड्डुओं को जब सेठानी ने तोड़कर देखा तो उनमें अर्शफिया मिली। यह देखकर उसने अपना माथा पीट लिय। सेठानी ने सेठ जी को दामाद के आने और लड्डुओं में अर्शफिया छिपाकर देने की बात बताई। सेठ जी ने दुखी सेठानी को समझाया कि अभी उनकी बेटी का भाग्योदय नहीं हुआ। तभी ये मोहरें बेटी और दामाद के काम नहीं आ सकीं और लौटकर वापिस घर आ गईं।
          इस कथा को लिखने का भाव यही है कि सृष्टि के सभी जीव अपने कर्मफल की डोर से बन्धे रहते हैं। अपने शुभाशुभ कर्मों का फल हर जीव को भुगतना पड़ता है। इसलिए समय रहते अपने कर्मों की ओर ध्यान देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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