मंगलवार, 21 मार्च 2017

विश्वास बनाए रखें

मनुष्य को अपने जीवन में निश्चिन्त होकर रहना चाहिए। जब मनुष्य बन्धु-बान्धवों पर विश्वास करके कदम आगे बढ़ाता है तो उसे कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिए। एक छोटे बच्चे को जब माता, पिता या अन्य लोग ऊपर उछालते हैं तो उस नन्हें से बच्चे को यह विश्वास होता है कि उसे किसी प्रकार की कोई हानि नहीं होगी। इसीलिए वह भी मस्ती करता है और खिलखिलाकर हँसता है।
          उसी प्रकार उसे यह पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि उसके जीवन की बागडोर उस ईश्वरीय शक्ति के हाथों में सुरक्षित है जो इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का संचालन कर रही है। वह इस संसार के सभी जीवों का भरण-पोषण करता है। उनके पूर्वजन्म कृत कर्मानुसार उन्हें बिनमाँगे फल प्रदान करता रहता है। उसकी ओर से कहीं किसी गलती की गुँजाइश ही नहीं होती।
         इस भौतिक संसार में मनुष्य यात्रा करते समय हवाई जहाज में निश्चिन्त होकर बैठता हैं जबकि वह पायलट को जानता तक नहीं है। न ही यात्रा करते समय वह उसकी शक्ल ही देख पाता है। परन्तु फिर भी उसे यह विश्वास होता है कि पायलट योग्य है और वह उचित समय पर, निश्चत गन्तव्य स्थान पर यात्रियों को पहुँचाने में सक्षम होगा।
        इसी प्रकार बस में भी सवारी करते समय मनुष्य अनजान बस ड्राइवर को पहचानते भी नहीं हैं। उनके मन में यह पूरा विश्वास होता है कि ड्राइवर अपने कार्य में दक्ष है और सभी यात्रियों को बिना किसी परेशानी के सही सलामत उनके गन्तव्य पर पहुँचाने में सफल हो जाएगा। आवश्यकता पड़ने पर कैब बुक करते हैं। वहाँ भी अनजान ड्राइवर के साथ प्रसन्नता से अपनी यात्रा पर चल पड़ते हैं।
          एवंविध रेल में सैंकड़ों यात्री बेफिक्र होकर यात्रा करते हैं जबकि वे रेलचालक को को पहचनते तक नहीं। वहाँ दिन और रात में कई घण्टों की यात्रा करते हुए भी माथे पर चिन्ता की लकीरें नहीं आतीं। यहाँ भी भाव यही होता है कि  यात्रा सुगमता से पूर्ण हो जाएगी। विभिन्न झूलों पर झूलने के लिए बैठते हुए भी मनुष्य को चालक पर पूर्ण विश्वास होता है तभी मनुष्य अपने बच्चों के साथ उस पर बिठाता है।
      अतः परस्पर विश्वास ही जीवन का मूल आधार होता है। इसके बिना मनुष्य एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकता। यदि वह परस्पर विश्वास को खो देगा तो वह निपट अकेला रह जाएगा। यह अकेलापन ही उसके जीवन का अभिशाप बन जाता है जो अपने साथ अनेक समस्याओं को जन्म देता है। इससे घबराकर मनुष्य यदा कदा कुमार्गगामी होकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य करने लगता है।
       दुनिया पर भरोसा करके मनुष्य स्वयं को और अपनों को उनके भरोसे छोड़ देता है। परन्तु यह समझ नहीं आता कि वह उस परमपिता परमेश्वर को जिसने उसे और उसके अपनों को जीवन दिया है, उस पर विश्वास क्यों नहीं कर सकता? वहाँ उसका विश्वास क्यों डगमगा जाता है? क्या सारे संसार को पोषित करने वाला वह मालिक उसका अहित कैसे कर सकता है?
       ये सभी प्रश्न वास्तव में विचारणीय हैं। मनुष्य ईश्वर से जितना विमुख होता जा रहा है, उतना ही अशान्त और परेशान रहता जा रहा है। इसके विपरीत जितना प्रभू के प्रति आस्थावान रहता हे उतना ही उसे मानसिक सन्तोष मिलता है। एक नन्हे बच्चे की तरह उस जगतजननी पर अपने सभी कमों को उसे समर्पित करके हर मनुष्य पूर्णरूपेण निश्चिन्त हो सकता है।
        ‘वह मालिक जाने और उसका काम जाने’ वाला मनुष्य का भाव उसे हर विपरीत स्थिति से बचाता है। ऐसे मनुष्य को कोई रोग-शोक नहीं सता सकता। वह मनुष्य वास्तव में सौभाग्यशाली होता है जो मालिक पर विश्वास करके स्वयं को उसे सौंपकर आजन्म चैन की बांसुरी बजाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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