सोमवार, 16 जुलाई 2018

प्रेम की राह कठिन

प्रेम कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे किसी से छीन कर प्राप्त किया जा सके। अथवा यह प्रेम न तो किसी को भेंट में दिया जा सकता है और न ही किसी को भिक्षा में दिया जा सकता है। जिसे माँगकर या जबरदस्ती छीनकर हासिल किया जाए उसे प्रेम नहीं कहते। स्मरण रखने वाली बात है कि यह प्रेम किसी की भी जागीर नहीं है जिसका आने वाली पीढ़ियाँ बटवारा कर सकती हैं अथवा इसके लिए वसीयत लिखी जा सके। इसके लिए झगड़ा करना व्यर्थ है। यदि इस प्रेम पर किसी व्यक्ति विषेष का अधिकार नहीं है तो यह उसका भाग्य है।      
           प्रेम पर चलना दुधारी तलवार पर चलने के समान होता है। जरा-सी चूक हुई नहीं कि पैर लहूलुहान हो जाने का डर बना रहता है। किसी भी रिश्ते को बनाए रखने के लिए प्रेम का होना बहुत आवश्यक होता है। प्रेम के बिना रिश्तों के पौधे मुरझाने लगते हैं। अन्ततः टूटकर गिर जाते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रेम की गली बहुत संकरी या तांग होती है, इसमें दो लोग एकसाथ नहीं समा सकते। इसका अर्थ है कि प्रेम के रास्ते में दूसरे के लिए स्थान बनाने का प्रयास किया जाएगा तो वहाँ टूटन होती है, बिखराव होता है।
           हर रिश्तों में प्रेम के पौधे को बहुत ही कुशलता से सम्हालकर लगाना होता है। जिस प्रकार पौधे को समय-समय पर सूर्य के प्रकाश में रखना होता है। उस पौधे को पल्ल्वित करने लिए लिए अच्छी खाद और पानी देना पड़ता है। यानी रिश्तों में प्रेम बना रहे इसके लिए समय-समय पर मिलना चाहिए। एक-दूसरे की प्रसन्नता के लिए मूल्य की चिन्ता किए बिना उपहारों का आदान- प्रदान करते रहना चाहिए। जब तक रिश्तों में प्यार बना रहेगा तब तक वे सुख-दुख के साथी बनते रहेंगे।
          सबसे दुखदायी रिश्ते वे होते हैं जिनके साथ मन से जुड़ाव नहीं होता। ऐसे रिश्ते मजबूरी में निभाए जाते हैं। वे रिश्ते नाम मात्र के होते हैं। उनके होने से अथवा न होने से किसी को कोई अन्तर नहीं पड़ता। आजकल बहुत से लोग ऐसे हैं जिनकी जिन्दगी में अपने रिश्तों को लेकर कशमकश या खींचतान चलती रहती है। ऐसे रिश्तों को तो मानो न उगलते बनता है और न ही निगलते बनता है। ये रिश्ते बस ढोए चले जा रहे होते हैं।
          बन्धु-बान्धवों, घर-परिवारी जनों के साथ यदि प्रेम और विश्वास न हो तो उनके मध्य दरारें पड़ जाती हैं। इन्हें पाटना बहुत कठिन हो जाता है। उन्हें यदि दूर करने का प्रयास यदि किया भी जाए तो पता नहीं कब धोखा मिल जाए। इसका कारण है कि जो एक बार दूर हो सकता है, क्या भरोसा वह दुबारा वैसा नहीं करेगा। यह भी हो सकता है कि उसके पुनः जुड़ाव का कारण उसका स्वार्थ हो। इसीलिए वह इतनी सहृदयता का परिचय दे रहा हो। यह भी सम्भव है कि वह निस्स्वार्थ भाव के पहले जैसा सम्बन्ध बनाना चाहता हो। दूसरी स्थिति अच्छी है पर पहली स्थिति में शत-प्रतिशत धोखा मिलने की सम्भावना हो सकती है। तब व्यर्थ प्रलाप करने का कोई लाभ नहीं होता।
         कुछ रिश्ते बनते हैं या टूट जाते हैं। यदि इनमें बलिदान दिया जाता है तो वे मात्र प्रदर्शन बनकर रह जाते हैं। इसलिए ऐसे रिश्तों से समय रहते किनारा कर लेना चाहिए अन्यथा बाद में बहुत कष्ट होता है। ऐसे नाममात्र के सम्बन्धों से कोई उम्मीद पालने का अर्थ होता है, स्वयं को पीड़ित करना। ये अस्वस्थ रिश्ते से किसी भी उम्मीद पर खरे नहीं उतरते। अन्ततः उन रिश्तों से मानसिक सन्ताप के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिल सकता।
          मनुष्य को अपनी पारखी एवं पैनी नजर इन रिश्तों पर रखनी चाहिए। तभी वह पहचान सकता है कि अपना कौन है और अपनेपन का प्रदर्शन कौन कर रहा है? किन रिश्तों में वास्तविक प्रेम है और कहाँ मात्र दिखावा है?
         कहने का तात्पर्य यह है कि जिन रिश्तों में मन से जुड़ाव होता है, वह उनकी बातचीत से, उनके व्यवहार से छलकता है। उसको समझने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। इसके विपरीत झूठे रिश्तों में प्यार के स्थान पर आवश्यकता से अधिक मिठास होती है। उसी से ही उस रिश्ते की सच्चाई समझ लेनी चाहिए। वहाँ झूठी कसमें खाने या जरूरत से अधिक अपनापन दिखना खतरे की घण्टी होता है। इसलिए वहाँ सावधान रहना बहुत आवश्यक होता है। धोखा खाकर प्रलाप करने से चुप लगा लेना बुद्धिमानी होता है।
          किसी को कहने के स्थान पर अपने कदम पीछे मोड़ लेने चाहिए। इज़ तरह मनुष्य बुरा भी नहीं बनता और उसे किसी तरह परेशानी भी नहीं उठानी पड़ती।
चन्द्र प्रभा सूद
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