गुरुवार, 5 जुलाई 2018

हिंदी साहित्य की विडम्बना

हिन्दी साहित्य का दायित्व यदि प्रूफ रीडर सम्हालेंगे तो साहित्य का क्या होगा? यह प्रश्न बार-बार मन को मथ रहा है, उद्वेलित कर रहा है। यहाँ मैं किसी का नाम नहीं लिख रही। एक सुप्रसिद्ध रचनाकार का यह कथन है कि उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी पुस्तकों का संशोधन कार्य प्रूफ रीडर करते हैं, वे नहीं करते।
         उनके इस वाक्य ने मनन करने पर विवश कर दिया है। प्रायः प्रूफ रीडर अधिक पढ़े नहीं होते। यदि वे पढ़े-लिखे होते तो इस कार्य को न करके कोई अच्छी नौकरी करते। किसी भी प्रूफ रीडर का कार्य मात्र इतना होता है कि जैसा पाण्डुलिपि में लिखा है, वैसा ही अक्षरश: उसका शोधन किया जाए। उस प्रूफ में कुछ भी घटाना या जोड़ना प्रूफ रीडर के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। यानी उनका कार्य मक्खी पर मक्खी मारना होता है।
         बड़े-बड़े प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थानों की बात अलग है वहाँ पर मोटी तनख्वाह पर एडिटर रखे जाते हैं, प्रूफ रीडर को उतना वेतन नहीं दिया जाता। प्रायः प्रकाशक अपने संस्थान में प्रूफ रीडर नियुक्त नहीं करते। वे कार्य के अनुसार ही प्रूफ रीडर को राशि देते हैं।
           स्वयं को संवेदनशील रचनाकार कहने वालों का साहित्य के प्रति इतना लापरवाह रवैया वास्तव में चिन्ता का विषय है। तथाकथित साहित्यकारों को भाषा की समझ नहीं है। बहुत से रचनाकार ऐसे हैं जो दो वाक्य भी शुद्ध नहीं लिख सकते। प्रायः रचनाकारों को वर्तनी, विराम चिह्न आदि का ज्ञान नहीं होता। वे अपेक्षा करते हैं कि कम पढ़ा प्रूफ रीडर उनकी भाषा को शुद्ध भी करेगा, उनके वर्तनी दोष भी सुधरेगा और यथोचित स्थान पर विराम चिह्न भी लगा देगा।
          कितना दुर्भाग्यपूर्ण है हिन्दी साहित्यकारों का यह रवैया? क्या हम यही थाती अपनी आने वाली पीढ़ी को सौंपना चाहते हैं?
          आज के तथाकथित साहित्यकार स्वयं को बहुत महान समझते हैं और दूसरों को मूर्ख समझने की भूल करते हैं। इसी कारण दूसरों की आलोचना और टाँग खिंचाई का कार्य अधिक होने लगा है। जो कुछ थोड़े बहुत विद्वान साहित्यकार हैं, वे प्रायः अपने अनुजों को प्रोत्साहित न करके निराश ही करते हैं। आज के तथाकथित साहित्यकार न तो साहित्य की साधना करते हैं और न ही अपने पूर्ववर्ती श्रेष्ठ रचनाकरों को पढ़ना चाहते हैं।
         इसीलिए हिन्दी भाषा और साहित्य की दुर्गति हो रही है। तुष्टिकरण की राजनीति के चलते आज साहित्यिक गुटबाजी बढ़ती जा रही है। साहित्य की समझ है या नहीं, लिखना आता है या नहीं, बस सम्मान पत्र बटोरने को होड़ लगी हुई है। साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित करवाकर सम्मानित होने की ललक साहित्य को किस मोड़ पर लाकर खड़ा करेगी, समझ नहीं आ रहा। इसीलिए साहित्य का इतना अधिक पतन हो रहा है। हिन्दी साहित्य का तो बंटाधार हो रहा है। समझ नहीं आ रहा कि इस अन्धी दौड़ में घर, परिवार, बच्चे सब न जाने कहाँ पीछे छूटते जा रहे हैं?
         ईश्वर ही बचाए इन तथाकथित बुद्धिजीवियों से और उन्हें सदबुद्धि प्रदान करे ताकि ये लोग हिन्दी साहित्य से खिलवाड़ करना बन्द करें। दिन-प्रतिदिन हिन्दी साहित्य का उत्थान हो, यही कामना है।
चन्द्र प्रभा सूद
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