शनिवार, 7 जुलाई 2018

धरती और बादल

गहरा काला, धूमिल बादल
आया है देखो सजधजकर
शायद इस प्यासी धरती को
रिझाने और प्यास बुझाने।

तरह-तरह के रूप बनाकर
नाना विधि के नृत्य दिखाकर
अपनी मोहक भावभंगिमा से
छोड़ रहा देखो तीर तरकश से।

कभी तड़ित की चमक दिखाता
कभी अपने मधुर गर्जन से उसे
रिझाता और उसके न सुनने पर
मानो नीर बहाकर उसे मानता।

धरती क्योंकर सुने उसकी पुकार
लम्बी प्रतीक्षा की उसने बादल की
उसकी पथराई आँखें हो गईं उदास
बादल न पसीजा उसकी हालत पर।

धरती कोई खिलौना नहीं है मित्रो
बादल जब चाहे उससे खेल सके
औ जब चाहे उससे मुँह मोड़ चले
यह गणित बस अधूरा कहलाएगा।

अब बदल मनाए औऱ धरती रूठे
खेल ये अनवरत यूँही चलता रहेगा
अब हार क्या है, जीत क्या दोनों में
मान-मनौव्वल तो बस चलता रहेगा।

कभी प्यार है और कभी उदासी
दोनों ही हैं जीवन के दो पहलू
बादल तो बस उमड़-घुमड़कर
प्यासी धरती की प्यास बुझाता।

धरती उसके प्यार में सराबोर हो
जल-थल होती वह मारे खुशी के
पागल होती, हिलोरें लेती झूम रही
खुशियाँ मानती सारे दुख भूलकर।

जानती है बादल की यह मजबूरी
बँधकर नहीं बैठ सकता वह कहीं
उसे जाना होता है अन्यत्र जगत में
जनहित हेतु सृष्टि की प्यास बुझाने।

यह जानना होता बहुत आवश्यक
प्यार जीवन में नहीं होता सब कुछ
उससे भी जरूरी और बहुत हैं काम
मनुष्य के जीवन में करने के लिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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