शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

ईश्वर को भेंट क्या दें

एक गीत की दो पंक्तियाँ आज याद आ रही हैं, जिन्हें सभी ने सुना होगा-
अजब हैरान हूँ भगवन, तुझे कैसे रिझाऊँ मैं।
कोई वस्तु नहीं ऐसी, जिसे तुझ पर चढाऊँ मैं।।
अर्थात कवि हैरान हो रहा है कि वह ऐसी कौन-सी वस्तु ईश्वर को अर्पित करके उसे प्रसन्न करे। उसके पास जो कुछ भी है, वह सब ईश्वर का ही दिया हुआ है।
         हम भगवान के साथ यही करते हैं। हम रुपया-पैसा, मिठाई, फल-फूल, सोना-चाँदी आदि वस्तुएँ ईश्वर को चढाते हैं। यानी अपने कार्यों की सफलता के लिए उसे रिश्वत में देने का दुस्साहस करते हैं। उस समय भूल जाते हैं कि यह हर वस्तु जो हम उस प्रभु को अर्पित कर रहे हैं, वह उसी परमेश्वर की ही बनाई हुई है। उसी ने हमें वह दी है। फिर भी हम उस मालिक को भेंट करते हैं। मन में अहंकार का भाव रखते हैं कि हमने भगवान को बहुत मूल्यवान वस्तु भेंट दी है। अब तो प्रभु हमसे प्रसन्न हो जाएगा और हमारी मनोकामना पूर्ण का देगा।
          इसी विषय से मिलती एक घटना कहीं पढ़ी थी। एक बार एक व्यक्ति किसी के घर मिलने गया। वह अन्दर जाकर मेहमान कक्ष में बैठ गया। तभी उसे ध्यान आया कि वह खाली हाथ आया है। यह तो कोई अच्छी बात नहीं है। उसने सोचा कि कोई उपहार देना अच्छा रहेगा। उसने वहाँ पर टंगी हुई एक पेन्टिंग उतारी। जब घर का मालिक आया तो उसने वह पेन्टिंग उसे देते हुए कहा, "यह मै आपके लिए लाया हूँ।"
           घर के मालिक को तो पता था कि यह मेरी ही चीज मुझे ही भेंट में दे रहा है। वह व्यक्ति यह देखकर सन्न रह गया। उसे अपनी ही वह वस्तु भेंट में लेकर अच्छा नहीं लगा पर वह कुछ बोला नहीं।
          अब विचारणीय यह है कि क्या वह मनुष्य अपने ही घर की वस्तु को भेंट में पाकर खुश हो सकता है? मेरे विचार में सभी का उत्तर न में ही होगा।
         इसी तरह हम सब भी ईश्वर के साथ ऐसा ही व्यवहार करते हैं। उसकी दी हुई वस्तुओं को उसे अर्पित करके बहुत प्रसन्न होते हैं। हमसे बढ़कर मूर्ख और कौन हो सकता है?  
        समझते-बूझते हुए भी उसकी दी हुई वस्तुएँ उसे अर्पित करना चाहते हैं। हम भूल जाते हैं कि उस मालिक को इन सब भौतिक वस्तुओं की कोई आवश्यकता ही नहीं है। यदि उसे इन सबकी कामना होती तो वह झोलियाँ भर-भरकर हम मनुष्यों को देता ही क्यों? हम मनुष्यों की तरह स्वार्थी बनकर सब कुछ अपने पास ही समेटकर रख लेता।
           वह तो सच्चे प्रेम, श्रद्धा और भावना का भूखा है। यदि वास्तव में उसे कुछ देना ही है तो उसे अपनी श्रद्धा देनी चाहिए। अपने हर श्वास-प्रश्वास में उस मालिक को याद करना चाहिए। ईश्वर मनुष्य की भावना को चाहता है। अपने सच्चे मन से उसे पुकारकर देखने की आवश्यकता है। वैसे तो वह सदा हमारी रक्षा करता है। परन्तु जब हम अपने सच्चे मन से उसे पुकारते हैं तो हम उसके और अधिक करीब हो जाते हैं।
           ईश्वर ने इस संसार की हर भौतिक वस्तु हमें हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार दी है। उन वस्तुओं को पाकर हम इतराते फिरते हैं। यह सोचने लगते हैं कि यह सब अपनी मेहनत से कमाया है। पर जब कष्ट में होते हैं, हानि उठाते हैं तब ईश्वर को दोषी मानकर कोसते हैं। दूसरों के सिर पर अपने दोष मढ़कर उसे लानत-मलानत करते हैं। उस समय हमें अपनी गलतियों का कभी अहसास नहीं होता। हर इन्सान को लगता है कि दूसरों के कारण उसे इन विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है।
        मनुष्य अपनी सुन्दरता, अपने ज्ञान, अपने उच्च कुल, अपने धन-वैभव, अपनी शक्ति का व्यर्थ ही घमण्ड करते हैं। वह सोचता है कि सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर सकता है। उस मालिक को भी अहंकारवश अपने से छोटा समझने की भूल कर बैठता है। फिर स्वयंभू बन बैठता है। यह भी कहने में उसे हिरण्यकश्यप की तरह शर्म नहीं आती कि वह भगवान है, उसी की पूजा-अर्चना करो। जो उसका आदेश नहीं मानेगा उसे सजा मिलेगी। कहने का तात्पर्य यही है कि यदि हम अपने इस अहंकार का त्याग कर दें तभी उस मालिक के प्रिय बन सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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