शनिवार, 4 अगस्त 2018

धन की आवश्यकता

धन की कोई कितनी भी निन्दा क्यों न करे, पर उसके बिना मनुष्य एक कदम भी नहीं चल सकता। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जीवन जीने के लिए धन की महती आवश्यकता होती है। उसके बिना कोई भी सामाजिक अथवा धार्मिक कार्य नहीं किया जा सकता। घर-परिवार को चलाने के लिए भी धन ही चाहिए होता है। धन न हो तो मनुष्य को अपना सारा जीवन आभावों में जीना पड़ता है। यह उसकी विवशता होती है कि उसे कदम-कदम पर अपने मन को मारना पड़ता है।
          हमारे आदी ग्रन्थ वेद कहते हैं सैंकड़ों हाथों से कमाओ और हजारों हाथों से उसे खर्च करो। यानी खूब कमाओ और उसे अपने और अपने परिवार पर खर्च करो। सामाजिक और धार्मिक कार्यों पर व्यय करो। उस धन पर साँप की तरह कुण्डली मारकर मत बैठो। ऐसा धन किसी के काम नहीं आता।
        पञ्चतन्त्र के निम्न श्लोक को देखते हैं, इसमें कवि ने इस विषय पर अपने विचार रखे हैं-
    दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः।  
    पश्येह मधुकरीणां सञ्चितार्थं हरन्त्यन्ये॥
अर्थात धन का दान करना चाहिए और उसका भोग करना ही उचित है। धन का सञ्चय नहीं करना चाहिए। देखिए, मधुमक्खियों का सञ्चित किया हुआ शहद कोई और ही ले जाता है। 
          धन की सार्थकता दान देने में है और उपभोग करने में है। यानी जितनी सुख-समृद्धि का धन से उपभोग कर सकते हैं, कर लेना चाहिए। जिस धन को मनुष्य अपने लिए तथा अपने परिवार की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में व्यय नहीं कर सकता, उसका उपभोग दूसरे लोग करते हैं। यही बात उपरोक्त श्लोक में कवि ने बताई है कि मधुमक्खियाँ सारा समय मधु का संग्रह करती रहती हैं। उस मधु का उपयोग अन्य लोग करते हैं। यानी धुँआ करके मक्खियों को उड़ा देते हैं और उनके मेहनत से कमाए मधु को हरकर ले जाते हैं।
         भर्तृहरि जी ने इस धन की तीन गतियाँ बताई है-
    दानं भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
   यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।
अर्थात धन की यह तीन गति होती हैं - दान, भोग
और नाश। लेकिन जो न तो धन को दान में देता है और न ही उस धन का भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति तो निश्चित है अर्थात वह नष्ट हो जाता है।
          कुछ लोग ऐसे होते हैं जो धन को न अपने लिए खर्च करते हैं और न ही परिवारी जनों की आवश्यकताओं के लिए खर्च करना पसन्द करते हैं। वे वास्तव में धन पर कुण्डली मारकर बैठे रहते हैं। मनीषियों का कथन है कि इन लोगों का धन चोर-डाकू हर लेते हैं या उनके जामाता उसे व्यय करते हैं। इन लोगों की मृत्यु के पश्चात जब उनके पीछे वाले यानी बच्चों को मिलता है तो वे उसे सम्हाल नहीं पाते। सारी जिन्दगी आभावों में गुजारने के बाद जब बहुत सारा धन उन्हें अचानक मिल जाता है तो वे अपनी सारी इच्छाएँ पूरी कर लेना चाहते हैं। ऐसे परिवारों में बच्चों के बीच धन को लेकर परस्पर झगड़े भी होते हैं।
          धन मनुष्य को ऐशो-आराम की जिन्दगी देता है। साथ ही उसकी रक्षा करने की चिन्ता भी देता है। अपने धन को सुरक्षित करने के अनेक उपाय करता है। हाऊस टैक्स, इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स आदि की तलवार उस पर हमेशा लटकती रहती है। उसे यह भी डर सताता है कि कोई उसे धोखा देकर उसका धन न हथिया ले। न उसे दिन में चैन मिलता है और न ही वह रात को पूरी नींद सो पाता है।
          धन मनुष्य के सुविधापूर्वक जीने का एक साधन है। धन सब कुछ नहीं होता। इस संसार से विदा लेते समय सारी धन-सम्पत्ति यहीं छोड़कर खाली हाथ विदा होना पड़ता है। इस धन से संसार के सभी भौतिक साधन खरीदे जा सकते हैं। इससे अच्छा स्वास्थ्य, अच्छी व आज्ञाकारी सन्तान, सुन्दर व सुशील पत्नी, अच्छे मित्र नहीं खरीदे जा सकते। हाँ, स्वार्थी लोग उसके आसपास ऐसे मंडराने लगते हैं जैसे गुड़ पर मक्खियाँ। यदि मनुष्य उनके चंगुल में फँस गया तो उसकी हानि निश्चित होती है। और यदि सावधान रहा तो उनके जाल में फँसने से बच जाता है।
           अपने परिश्रम से कमाए गए धन का सदुपयोग करके अपना इहलोक और परलोक दोनों  ही से संवारने चाहिए। समाज में अपनी एक छाप छोड़कर ही जाना चाहिए, तभी धन की सार्थकता हो सकती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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