बुधवार, 1 अगस्त 2018

दूसरों की कमियाँ खोजना

कुछ लोगों को आदत होती है कि वे दूसरों में कभी अच्छाई नहीं देख सकते। वे बस दूसरों की कमियों को ढूंढने में सिद्धहस्त होते हैं। ऐसे लोगों को मनीषी छिद्रान्वेषी अर्थात दूसरों के दोष ढूंढने वाला कहते हैं। उनका शगल बस यही रहता है कि दूसरों के दोष खोजना और फिर नमक-मिर्च लगाकर उन्हें प्रसारित करना। ऐसे लोग अपने जीवन में अपयश कमाते हैं। एक बार, दो बार तो लोग उनकी रसीली बातों का आनन्द ले सकते हैं, फिर उनसे कन्नी काटने लग जाते हैं। समय बीतते-बीतते ऐसे लोगों की उपस्थिति सज्जन मनुष्यों को भार के समान लगने लगती है। वे उसके वहाँ से चले जाने की प्रतीक्षा करते हैं।
           विचारणीय है कि जो व्यक्ति दूसरों के राई जितने दोष को नमक-मिर्च लगाकर हमें सुना सकता है, उसका क्या भरोसा कि कल वह हमारे दोषों को दूसरों को चटखारे लेकर, पहाड़ जितना बनाकर नहीं सुनाएगा। ऐसे लोगों की न दोस्ती भली है और न ही शत्रुता अच्छी है। ये लोग दोमुँहे साँप की तरह खरनाक होते हैं। ऐसे लोग डंक मारने से कभी बाज नहीं आते। ये किसी के मित्र बनने के लायक नहीं होते। इसलिए इनसे जितनी दूरी बनाई जा सके, उतना ही अच्छा है।
           जिस व्यक्ति को जीवन में दूसरों को दोष
देने की आदत होती है, वह कभी पाप से यानी अपराध भाव से कभी मुक्त नहीं हो सकता। इसका कारण है कि पाप अपने ऊपर कभी दोष नहीं लेता। क्योंकि यही तो पाप के बचाव की व्यवस्था है। व्यक्ति सोचता है कि अपने दोष को दूसरे के सिर पर डालकर स्वयं दोषमुक्त हो जाऊँ। वास्तव में ऐसा हो नहीं सकता। वह कभी अपने पाप या दोष से मुक्त नहीं हो सकता। उसका अपना अन्तस् कभी-न-कभी तो उसे कचोटेगा ही।
           कबीर दास जी ने बहुत सुन्दर शब्दों में हमें समझाया है-
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थात यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देखता है तो हँसता है, बहुत खुश होता है। उस समय उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न कोई आदि है और न अन्त। अर्थात उसके दोष अनन्त हैं।
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोय।
जो मन खोज अपना मुझसे बुरा न कोय।।
अर्थात मैं बुरे लोगों को ढूंढने निकल पड़ा था पर मुझे कोई व्यक्ति बुरा नहीं मिला। जब मैंने अपने अन्दर खोजा तो पता चला कि मुझसे बुरा कोई और व्यक्ति है ही नहीं।
          इन दोनों दोहों का सार यही है कि मनुष्य को अपनी कमियाँ या दोष ढूंढकर निकालने चाहिए। जब दोष पता चल जाएँ तो उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए। यही तो मनुष्य की महानता होती है। यानी उसे अपने दोष दिखाई दें और दूसरों की अच्छाइयाँ। जब मनुष्य ऐसा करने लग जाता है तब वह मानव नहीं महामानव बन जाता है। ऐसे महापुरुष ही संसार के मार्गदर्शक बनते हैं। लोग इन सज्जन पुरुषों को अपनी सिर-आँखों पर बिठाते हैं।
          दूसरों में दोष खोजने वाले व्यक्ति की आदत ऐसी बन जाती है कि उसे दूसरों में कोई भी अच्छाई नहीं दिखाई देती और स्वयं में उसे कोई बुराई नहीं दिखाई देती। अपनी कमियों या बुराइयों पर पर्दा डालने के लिए वह हजारों बहाने गढ़ लेता है। स्वयं को महान सिद्ध करने में लगा रहता है। इसीलिए उसके सुधरने की गुँजाइश न के बराबर होती है। इसलिए ऐसा व्यक्ति दूसरों की आँख की किरकिरी बन जाता है। कोई सज्जन व्यक्ति उसके पास बैठकर प्रसन्न नहीं होता।
           छिद्रान्वेषी व्यक्ति अपने जीवन में'अघ' यानी पाप कमाता है। यह अघ विष्ठा की तरह होता है। जिसका भक्षण कोई समझदार व्यक्ति नहीं करता। दूसरों के दोष खोजते-खोजते वह स्वयं दोषों की खान बन जाता है। इन दोषों का भुगतान पता नहीं उसे कितने जन्मों में करना पड़ता है। मनोरञ्जन करने के लिए तो कभी उसे बुलाया जा सकता हैं पर उसे अपना मित्र नहीं बनाया जा सकता। धीरे-धीरे ऐसा व्यक्ति अकेला पड़ने लग जाता है। वह अपना इहलोक तो बिगाड़ लेता है और परलोक भी कष्टमय कर लेता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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