मंगलवार, 7 अगस्त 2018

तृष्णा

मनुष्य चाहे जितना भी सम्पन्न हो जाए उसकी तृष्णा अथवा उसका लालच कभी कम नहीं होते। मनुष्य के साधन जितने अधिक बढ़ते जाते हैं, उतना ही वह संग्रहशील बनता जाता है। हर वस्तु को वह खरीद लेना चाहता है, चाहे वह उसके काम में आए या नहीं। इस तरह यदि सभी समृद्ध लोग करने लगेंगे तो बाजार में वस्तुओं की कमी होने लगती है और फिर मँहगाई बढ़ने लगती है। इसका दुष्प्रभाव गरीब लोगों पर अधिक पड़ता है। वे रोज कुँआ खोदते हैं और पानी पीते हैं अर्थात प्रतिदिन कमाते हैं और भोजन पाते हैं। दो जून का खाना उन्हें मिल जाए तो वह दिन उनके लिए दिवाली हो जाता है। वे बेचारे महीने भर का राशन एक साथ खरीदने के विषय में सोच ही नहीं पाते।
     वाट्सअप पर एक बोधकथा पढ़ी थी, बहुत पसन्द आई। कुछ परिवर्तन के साथ इसे साझा कर रही हूँ। एक व्यापारी ट्रक में चावल के बोरे लेकर बाजार में बेचने के लिए जा रहा था। किसी तरह एक बोरा खिसक कर ट्रक से गिर गया। कुछ चीटियाँ वहाँ आयीं और चावल के दस-बीस दाने लेकर चली गयीं। उसके बाद कुछ चूहे आए जिन्होंने पचास ग्राम या सौ ग्राम चावल खाए होंगे और खाकर वे भी चले गए। तत्पश्चात कुछ पक्षी वहाँ आए और थोड़े-से चावल खाकर वे भी उड़ गये। बाद में कुछ गाएँ आईं जो दो-तीन किलो चावल खाकर चली गयीं।
          अन्त में एक मनुष्य आया और वह पूरा बोरा ही उठाकर ले गया। उसने यह भी नहीं सोचा कि यह उसका भाग नहीं है। इसका अर्थ यही कर सकते हैं कि अन्य सभी अपना प्राणी पेट पालने के लिए जीते हैं उनमें संग्रह करने की प्रवृत्ति नहीं होती। वे पेट भर जाने के बाद भोज्य पदार्थों की तरफ देखते भी नहीं हैं। इसीलिए वे चैन से रात को सोते हैं। प्रकृति के बनाए हुए नियमों का वे पालन करते हैं और अपने साथियों के साथ मिल-जुलकर रहते हैं।
          लेकिन मनुष्य है जो सदा तृष्णा में जीता है। उसका पेट भर हुआ हो तब भी उसे कुछ और की तलाश रहती है। इसीलिए उसके पास सब कुछ होते हुए भी, वह संसार में सर्वाधिक दुखी रहता है। और और पाने की उसकी प्रवृत्ति उसके दिन-रात का सुख-चैन होम कर देती है। आवश्यकता से अधिक पाने की इच्छा तृष्णा को जन्म देती है। एक वस्तु को मनुष्य पा लेता है तो दूसरी की कामना करने लगता है। इस तरह मनुष्य की अनियन्त्रित तृष्णा जब बढ़ने लगती है, तब वह उसके दुख का कारण बन जाती है।
           कबीरदास जी ने बहुत सुन्दर शब्दों में हमें समझाने का प्रयास किया है-
        माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
        आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
अर्थात माया की कामना समाप्त नहीं होती और न ही मनुष्य का मन संसार में मोह-माया आदि से भरता है। यह शरीर है जो बार-बार मरता रहता है। कबीरदास जी कहते हैं कि आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती।
           यह दोहा समझाने का प्रयास कर रहा है कि  इन्सान का यह शरीर बार-बार इस संसार से विदा भो जाता है। जब भी जीव को मानव जन्म मिलता है, वह बस माया और तृष्णा के जाल में उलझकर रह जाता है। सब जानते हैं कि इनके मकड़जाल में जो एक बार फँस जाता है, उसका वहाँ से निकल पाना असम्भव तो नहीं पर बहुत ही कठिन होता है। फिर भी मनुष्य इससे मुक्त नहीं हो पाते अथवा वे मुक्त होना नहीं चाहते। शायद उन्हें इस मारामारी में आनन्द आने लगता है।
           तृष्णा एक लाइलाज बीमारी है। इसका तो यह हाल है-
     मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों इलाज किया।
यह तृष्णा बहुत-सी बिमारियों को जन्म देती है। मनुष्य को अपने मार्ग से भटकाती रहती है। आपनी इन तृष्णाओं या कामनाओं को पूरा करने के लिए, अपनी सामर्थ्य न होने पर मनुष्य को अपने साधनों का विस्तार करना पड़ता है। उसके लिए जायज अथवा नाजायज सभी हथकण्डे अपनाता है। इसके लिए कुमार्ग पर जाने में भी कोई परहेज नहीं करता। किसी का गला काटना, किसी को धोखा देना, रिश्वतखोरी करना, भ्रष्टाचार करना आदि उसके लिए मामूली बात हो जाती हैं।
          यदि इस तृष्णा को वश में न किया जाए तो ये जी का जंजाल बन जाती है। जिन्दगी में दो पल का भी चैन नहीं लेने देती। मृत्युपर्यन्त यह मनुष्य को कठपुतली बनाकर नचाती रहती हैं। मनुष्य कब इसका गुलाम बन जाता है, उसे स्वयं भी नहीं ज्ञात हो पाता। अन्त में इतना ही कहना चाहती हूँ कि उसके गुलाम बनने के बजाय उस पर विजय प्राप्त करनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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