रविवार, 10 जनवरी 2016

हर स्थिति में एक समान

हर स्थिति में एक समान रहने वाले मनुष्य के लिए भगवान कृष्ण ने एक शब्द दिया है स्थितप्रज्ञ। सभी अवस्थाओं में एकरूपता का परिचय देने वाला मनुष्य वस्तुत: महान होता है। वह संयमी कहलाता है।
      'नराभरणम्' ग्रन्थ में भगवान सूर्य का उदाहरण देते हुए कहा है -
उदये सविता ताम्र: एवास्तमेति च।
सम्पद्विपदवस्थासु महतामेकरूपता॥
अर्थात सूर्य उदय होते समय लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल होता है। उसी प्रकार महापुरुष सम्पत्ति और विपत्ति  में एकरूप रहते हैं।
          एकरूपता का इससे अधिक सटीक उदाहरण और कोई हो नहीं सकता। सूर्य उदयकाल और अस्तकाल दोनों ही कालों अथवा स्थितियों में एक समान रहता है। पता नहीं हम मनुष्य ऐसा क्यों नहीं कर सकते? अलग तरह का व्यवहार क्यों करने लगते हैं? 
          अभ्युदय के समय मनुष्य के पैर धरती पर नहीं पड़ते। वह आसमान में ऊँचा उड़ने लगता है। सबको अपने से हीन समझने लगता है। वह उस समय ऐसा सोचता है कि उसकी बराबरी में खड़ा हो सकने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं है। वह स्वयं को भगवान से भी बड़ा मानता हुआ उस मालिक का तिरस्कार करने से बाज नहीं आता।
          विपत्तिकाल में वह चाहता है कि हर मनुष्य उससे सहानुभूति रखे, उसकी सहायता करे और उसका दुख साझा करे। सुख में तो उसने किसी को नहीं पूछा परन्तु दुख के समय उसकी आकांक्षाएँ बढ़ जाती हैं। दूसरों के साथ किए अपने अशिष्ट व्यवहार को वह भूल जाता है।
          होना यही चाहिए कि स्थिति कैसी भी हो, दोनों में मनुष्य का बर्ताव एक जैसा रहे। महान लोगों की यही चारित्रिक विशेषता उन्हें सबसे अलग बनाती है। 'सुभिषितनीवी' में सागर का उदाहरण देते हुए कवि ने कहा है -
प्रतिगृह्णाति जीमूले प्रत्यर्पयति वा स्वयम्॥
अपूरणमपां पत्यु: पूरण् च न लक्ष्यते॥
अर्थात् बादल से जल लेते हुए या बादल को जल देते समय नदीपति समुद्र को रिक्तता या पूर्ति का भाव नहीं होता। हवा के झोंके से पीड़ित, स्नेह से रहित, संत्यक्त होने पर भी रत्न दीपक दिन-रात प्रकाश ही देता है।
            कवि कहना चाहता है कि बादल को वाष्परूप में जल देते समय और उससे वर्षा के रूप में जल लेते समय सागर एक जैसा रहता है। उसे न तो खालीपन का अहसास होता है और न ही भरे होने का। इसी तरह दीपक हर स्थिति में प्रकाश देता है, चाहे हवा उसे बुझाने की कोशिश करे, चाहे उसका तेल समाप्त हो जाए।
         घर में बच्चे जब ज्यादा खुश हते हैं तब हम बड़े उन्हें टोक देते हैं और जब चोट खाते हैं तो उन्हे बहाने से बहलाते हैं। परन्तु जब अपनी बारी आती है, तब हम सब कुछ भूल जाते हैं। हमारी समझदारी घास चरने चली जाती है।
         इसलिए शास्त्र हमें यही समझाते हैं कि हमरी कथनी और करनी में अन्तर नहीं होना चाहिए। हमें मन, वचन और कर्म से महात्माओं की तरह एकरूप रहना चाहिए। मन, वचन और कर्म से दुरात्मा लोग अलग होते हैं। इसलिए जैसा मन में होता है, वैसा ही महान लोगों के चित्त में होता है। जो वाणी और वचन में होता है, वैसी ही उनकी क्रिया रहती है।
           अनुरूप अथवा विपरीत जैसी भी पस्थितियाँ जीवन में काल क्रमानुसार आ जाएँ, उन्हें झेलने में एकरूपता सदा रहनी चाहिए यही शास्त्रों का कथन है। हमें भी
यथासम्भव यही प्रयास करना चाहिए कि अपनी इन विरोधी स्थितियों को ईश्वर की आराधना, सज्जनों की संगति और सद् ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए गुजर जाने दें। मन में सदा यही भाव रखना चाहिए कि समय परिवर्तनशील है सदा एक-सा नहीं रहता।
चन्द्र प्रभा सूद
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