रविवार, 24 जनवरी 2016

जाति का गर्व

हर जीव अपनी जाति से पहचाना जाता है। इसका अर्थ यही है कि हम मनुष्य हैं, वे पशु हैं, पक्षी हैं अथवा जलचर व नभचर हैं, इत्यादि। ईश्वर ने यही वर्गीकरण करके जीवों को इस संसार मे भेजा है। बाकी सब मानव मस्तिष्क की खुराफात है।
         न्यायदर्शन का कथन है -
           समान प्रसवात्मिका जाति:।
अर्थात् विभिन्न व्यक्तियों में समान बुद्धि पैदा करने वाली जाति है।
          दर्शन हमें बता रहा है कि एक समान बुद्धि वालों की ही एक जाति होती है। इस तथ्य को हम इस तरह भी कह सकते हैं कि विद्वान, मूर्ख आदि के प्रकार से जातियों का विभाजन करना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है।
         ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि जातियों का विभाजन गुण और कर्म के आधार पर किया गया। यह विभाजन कोई रूढ़ नहीं था। चारों जातियों के लोग यदि अपना कर्म परिवर्तित कर लेते थे तो उसके अनुसार ही उनकी जाति भी बदल जाती थी।
          संस्कृत भाषा के कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक 'राजतरंगिनी' में लिखा है कि दुनिया में प्राय: देखा गया है कि सब जीवों को अपनी ही अपनी ही जाति वालों से भय होता है। वे कहते हैं कि बाज पक्षियों को मारता है, शेर वन में पशुओं को मारता है, मणियाँ हीरों के द्वारा भेदी जाती हैं, कुदाल से पृथ्वी खोदी जाती है, वायु के द्वारा पुष्प गिराए जाते हैं और सूर्य के द्धारा नक्षत्र निस्तेज कर दिए जाते हैं।
         कवि कल्हण का कथन सर्वथा उपयुक्त है। हम मनुष्यों की बात करें तो वे जाति के नाम पर जो भी अत्याचार और अनाचार करते हैं, वे किसी से छुपे नहीं हैं। हर दूसरे दिन ऐसे हृदय विदारक समाचार सोशल मीडिया की सुर्खियों में रहते हैं। एक-दूसरे के सिर पर दोष मढ़कर सभी लोग अपना पल्लू झाड़कर बच निकल
जाना चाहते हैं। उच्च जाति का यह घमण्ड मानव समाज को रसातल की ओर ले जा रहा है।
          'सुक्तिमुक्तावली' ग्रन्थ कहता है -
          शुनक: स्वर्णपरिष्कृतगात्र:
               नृपपीठे विनिवेशित: एव।
          अभिषिक्तश्च जलै: सुमुहुर्ते
                न जहात्येव गुणं खलु पूर्णम्॥
अर्थात् कुत्ते को स्वर्ण अलंकारों से विभूषित करके राजसिंहासन पर बैठा कर अच्छे मुहुर्त में जल से अभिषेक करने पर भी कुत्ता अपना जातिगुण नहीं छोड़ता।
          हर मनुष्य को बराबर समझने वाले विचार तो न जाने कहीं खोते जा रहे हैं। इसका खमियाजा समस्त मानव जाति को भुगतना पड़ेगा।
           'प्रशमरतिप्रकरण' ग्रन्थ में हमें समझाने का प्रयास किया है। वहाँ कहा है कि ससार में परिभ्रमण करते हुए लाखों-करोड़ों बार जन्म लेकर असंख्य बार प्राप्त हुई नीच, ऊँच और मध्यम अवस्थाओं को  जानकर कौन बुद्धिमान जातिमद करेगा? कर्मवश संसारी प्राणी इन्द्रियों की रचना से उत्पन्न होने वाली विभिन्न जातियों में जन्म लेता रहता है। यहाँ किसकी कौन-सी जाति स्थायी है? इसलिए जाति का घमण्ड नहीं करना चाहिए।
         पता नहीं कितने जन्मों में हम अपने कृत कर्मों के अनुसार किस-किस जाति में जन्म लेकर आए हैं, तो फिर यह ऊँच-नीच का भेद करने का कोई औचित्य समझ नहीं आता। छोटे या बड़े किसी भी मनुष्य के बिना हम अपना जीवन नहीं चला सकते। हमें अपने दैनिक जीवन में हर व्यवसाय के व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती रहती है। उसके बिना हम स्वयं को असहाय महसूस करते हैं। उस समय मानो चक्का जाम हो जाता है और म परेशान हो जाते हैं।
          विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद का कहना है -
          उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पांश माध्यम चृत।
          अवाधमानि जीवसे।
अर्थात् उत्तम, मध्यम और निम्नता के पाश खोल दो, नष्ट कर दो , ताकि हम विश्व में सुख से रह सकें।
चन्द्र प्रभा सूद
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