बुधवार, 27 जनवरी 2016

आत्मसम्मान

अपना आत्मसम्मान हर मनुष्य को बहुत प्रिय होता है। उस पर होने वाले तनिक से प्रहार को भी वह सहन नहीं कर पाता। यह आत्मसम्मान न हुआ मानो शीशा है जो जरा-सी चोट लगने पर किरच-किरच होकर बिखर जाता है। आत्मसम्मान कोई शरीर नहीं है परन्तु फिर भी हर बात पर घायल हो जाने के लिए बेताब रहता है।
          वास्तव में सम्मान की कामना हर व्यक्ति करता है। कहते हैं कि जहाँ मान व सम्मान न मिले वहाँ भूलकर भी नहीं जाना चाहिए। फिर आत्मसम्मान की बात कुछ अलग ही है। जिस व्यक्ति को अपना आत्मसम्मान प्रिय नहीं है, वह तो इन्सान कहलाने के योग्य भी नहीं है। इसीलिए मनीषी कहते हैं-
                मानो हि महतां धनम्।
अर्थात् मान ही महान लोगो का धन है। दूसरे शब्दों में कहें तो मनस्वी अपने जीवन को अभावों में जी लेंगे पर अपने स्वाभिमान को ठेस नहीं लगने देंगे। उनके लिए उनका मान ही सर्वोपरि होता है, अन्य शेष कुछ भी नहीं।
          इसे नाक का प्रश्न भी कहा जाता है। स्वाभिमानी किसी को भी अपनी पगड़ी उछालने नहीं देते। आग जब अपने तेज में होती है तो सभी उससे डरते हैं, पर जब वह राख बन जाती है तो चींटियाँ भी उस पर चलने लगती हैं।
          स्वाभिमानी व्यक्ति टूट सकते हैं पर किसी के आगे अनावश्यक रूप से झुकते नहीं है। वे चाहते है कि उन्हें कोई खाने के लिए दे चाहे न दे परन्तु उनके आत्मसम्मान को ठेस न लगाए। वे दुनिया के हर सुख व ऐश्वर्य को इसके लिए बलिदान कर सकते हैं। महाराणा प्रताप, गुरु गोबिन्द सिंह आदि स्वाभिमानी व्यक्तियों के बलिदानों से इतिहास के पन्ने भरे हुए हैं जिन्होंने अपने देश, धर्म व समाज के लिए अपनी व अपने बच्चों तक की परवाह नहीं की। इसीलिए वे आदरणीय हमारे हृदयों में बसते हैं। हम उनके लिए प्रात:स्मरणीय विशेषण का प्रयोग करते हैं।
          इसके विपरीत वे लोग भी होते हैं जो अपने आत्मसम्मान को ताक पर रखकर अपने तुच्छ स्वार्थो को महत्त्व देते हैं। उन्हें कोई कुछ भी कह ले, चिकने घड़े की तरह उन पर कोई असर नहीं होता। ऐसे लोगों के लिए कहा जाता है -
           बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैय्या।
अर्थात् वे हर रिश्ते या सम्बन्ध को केवल पैसे के तराजू पर तौलते हैं। इसीलिए उनके मायने अलग ही होते हैं। उन्हें लोग डीठ, चापलूस, चिकना घड़ा अथवा चाटूकार आदि विशेषणों से नवाजते हैं। ये लोग अपनी तथाकथित प्रशंसा को सुनकर बस दाँत निपोरकर रह जाते हैं।
        दुनिया भाड़ में जाए, इनके स्वार्थों की पूर्ति बस किसी भी तरह से होनी चाहिए। ये किसी भी हद तक गिरकर अपना काम्य पाना चाहते हैं। ऐसे ही लोग अपने स्वार्थ पूर्ति करने में इतने अन्धे हो जाते हैं कि अपने देश व धर्म का सौदा करने से भी बाज नहीं आते। अपने ही देश के गुप्त दस्तावेजों को चन्द टुकड़े लेकर शत्रु देश को बेच देते हैं। उन्हें तनिक भी यह भय नहीं लगता कि शत्रु देश यदि अपने देश पर आक्रमण करेगा और न जाने कितने वीरों को उनके कारण अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा। देश पर युद्ध का अनावश्यक बोझ बढ़ जाने से उन्नति के कार्य प्रभावित हो जाएँगे। ऐसे देशद्रोही लोग पकड़े जाने पर सारी आयु सलाखों के पीछे व्यतीत करते हैं। अपने देश व अपनों के लिए कलंक बन जाते हैं।
         मनुष्य को अपनी इच्छाओं को अपनी मेहनत के बलबूते पर पूर्ण करना चाहिए। स्वार्थों को अपने ऊपर इतना अधिक हावी नहीं होने देना चाहिए कि वह कुमार्ग पर चलकर तिरस्कार का पात्र बन जाए। अपना आत्मसम्मान बचाए रखने का यत्न करना चाहिए, उसे किसी भी मूल्य पर गँवाना नहीं चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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