शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

बालसुलभ चेष्टाएँ

बच्चों की बालसुलभ चेष्टाओं को देखते हुए हम सभी बहुत आनन्दित होते हैं। प्रतिदिन उनकी किसी भी माँग को माता-पिता के न मानने पर रूठना और मानना, बात-बात पर जिद करना आदि अच्छा लगता है। इन सभी मौकों पर हम मुस्कुराकर रह जाते हैं। उनके ये सभी क्रिया-कलाप हमें मानसिक सन्तोष देते हैं। एक प्रकार से हम उन क्षणों में स्नेह से अभिभूत हो जाते हैं। कभी-कभी हम बड़े भी बच्चों की प्रसन्नता के लिए जान-बूझकर उनसे वैसा ही रूठने, मानने या जिद करने का अभिनय करते हैं। इस प्रकार जीवन अपनी ही गति से निरन्तर चलता रहता है।
         छोटे बच्चे गिरते-पड़ते जब ठुमकते हुए चलते हैं तो वे हर किसी के आकर्षण का पात्र बन जाते हैं। इनके गिरने पर कष्ट भी होता है। चोट लगने पर जब ये रोते हैं तब बड़े इन्हें बहला देते हैं कि फर्श टूट गया है अथवा चींटी मर गई है। उसी पल वे रोना भूलकर उठ खड़े होते हैं और पहले की ही तरह बर्ताव करने लगते हैं।
         छुपन-छुपाई का खेल जब वे खेलते हैं, तब उनका अलग ही रूप दिखाई देता है। एक ही स्थान पर बैठे हुए बड़े जब यह कहते हैं कि हमें तो वह दिखाई ही नहीं दे रहा, पता नहीं कहाँ चला गया है? चलो उसे ढूँढो। यह सुनते ही वह हँसते हुए आकर कहता है कि मैं तो यहाँ हूँ। बच्चों की ये सभी सरल क्रीड़ाएँ अनायास ही मन्त्रमुग्ध कर लेती हैं। उनकी इन मनोहारी चेष्टाओं पर माता-पिता व अन्य सभी बलिहारी होते रहते हैं।
          हर अवसर पर उनका बात-बात पर उन्मुक्त होकर खिलखिलाना हर किसी को आनन्दित करता है। इन्सान चाहे कितना भी परेशानियों में क्यों न घिरा हो पर छोटे बच्चे जब गोद में बैठकर प्यार करते हैं, तब कुछ समय के लिए मनुष्य अपने सारे कष्ट भूल जाता है। बच्चे के साथ बच्चा बन जाता है।
           कितनी ही सख्या में बड़े लोग एक स्थान पर बैठे हों, वहाँ उतनी रौनक और खुशगवार माहौल नहीं हो पाता जितना एक बच्चे के आने पर हो जाता है। सभी लोग उस बच्चे के साथ बच्चा बनकर आनन्दित होने लगते हैं। सारा वातावरण उल्लासमय हो जाता है। सब उन पलों को सहेज लेना चाहते हैं।
         किसी भी बात को न समझ पाने पर इनके भोले-से मुखड़े पर आया आश्चर्य का भाव वाकई देखने लायक होता है। इनके बालसुलभ प्रश्नों की बौछार का उत्तर देते हुए सब थक जाते हैं। ये बच्चे हैं कि नित नए प्रश्नों के साथ हाजिर हो जाते हैं। डाँट खाने के बाद थोड़े समय के लिए अवश्य चुप लगाते हैं। फिर बिना बुरा माने, बिना नाराज हुए उनका वही क्रम पुन: आरम्भ हो जाता है।
          बच्चों में छल, कपट, ईर्ष्या, द्वेष, तेरे-मेरे आदि की सभी भावनाएँ हम समझदार लोग ही उनके निष्कपट हृदयों में भरते हैं। उन्हें सरल से विषाक्त बनाने का कार्य हम बखूबी निभाते हैं। हम अपने गिरहबान में झाँकने के बजाय फिर बाद में यह कहने से भी नहीं चूकते कि आजकल के बच्चे बहुत चालाक अथवा घाघ हो गए हैं। इन्हें छोटे-बड़े का लिहाज करना ही नहीं आता।
         इन्हें हम बड़े अपने स्वार्थ के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। कोई भी लालच देकर घर में एक-दूसरे की जासूसी इन मासूमों से करवाना एकदम गलत है। धीरे-धीरे यही प्रवृत्ति उनमें लालच बनकर पनपने लगती है। बड़े होकर जब वे किसी माँग को पूरा करने के लिए पैसा या अपनी जरूरत की कोई वस्तु माँगते हैं, तब उस समय हमें बुरा लगता है। तब हमें याद नहीं आता कि यह गलत संस्कार हमीं ने उसे दिए हैं।
           हम बड़ों की सच्ची-झूठी बातों को अक्षरश: सत्य मानने वाले इन बच्चों को यदि हम सरल हृदय ही रहने दें तो समाज का ढाँचा ही कुछ और हो जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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